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चतुर्थ अध्ययन
[57 तिविहं तिविहेणं.....
.. वोसिरामि। तीन करण और तीन योग से, मन वचन और काया से करूँगा नहीं, करवाऊँगा नहीं, करने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। पहले की गई वायुकाय की विराधना का हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षी से निन्दा करता हूँ, गुरु-साक्षी से गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा को वायुकाय की विराधना से हटाता हूँ।
भावार्थ-चौथे प्रतिज्ञा सूत्र में साधु-साध्वी वायुकाय की हिंसा टालने की प्रतिज्ञा करते हैं। संयत, विरत आदि गुणवाला साधु दिन में या रात में, किसी भी प्रकार की स्थिति में वायुकाय की रक्षा के लिये प्रतिज्ञा करता है कि-चामर से, पंखे से, तालवृंत पत्र या पत्रों के समूह से, वृक्ष की शाखा से, शाखा के टुकड़ों से, मोरपंख से, मोर पिच्छी से, कपड़े या कपड़े के छोर से, हाथ से अथवा मुँह से अपने शरीर या किसी बाह्य पदार्थ पर फूंक मारना नहीं, पँखी से हवा करना नहीं । दूसरे से फूंक दिलाना नहीं, पंखे से हवा करवाना नहीं। फूंक मारने अथवा पंखे से हवा करने वाले को भी अच्छा समझना नहीं, जीवन पर्यन्त तीन करण और तीन योग से । महाव्रती की प्रतिज्ञा होती है कि वह वायुकाय की हिंसा करेगा नहीं, दूसरों से करवाएगा नहीं, करने वाले का अनुमोदन भी करेगा नहीं, मन, वचन और काया से । पूर्वकृत पाप के फल को हल्का करने के लिये भिक्षु प्रतिक्रमण कर पापकारी आत्मा की निन्दा करता है, गुरु की साक्षी से गर्दा कर आत्मा को पाप से अलग करता है। वायु के जीव इतने सूक्ष्म होते हैं कि एक बार की फूंक में असंख्य जीवों की हिंसा हो जाती हैइसलिये कहा है कि-न फुमेज्जा-फूंक नहीं मारे । वस्त्रों को जोर से फटकारे भी नहीं।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहय पच्चक्खाय-पावकम्मेदिआ वा, राओ वा, एगओवा, परिसागओवा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से बीएसुवा, बीयपइट्टेसु वा, रूढेसु वा, रूढपइट्टेसु वा, जाएसु वा, जायपइढेसु वा, हरिएसु वा, हरियपइटेसुवा, छिन्नेसुवा, छिन्नपइटेसुवा, सचित्तेसुवा, सचित्त-कोलपडिनिस्सिएसु वा, न गच्छिज्जा', न चिट्ठिज्जा', न निसीइज्जा, न तुअट्टिज्जा अन्नं न गच्छाविज्जा न चिट्ठाविज्जा न निसिआविज्जा न तुअट्टाविज्जा, अन्नं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीअंतं वा तुअस॒तं वा, न समणुजाणिज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समणुजाणामि।
__ तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।।22।।
1. पाठान्तर-गच्छेज्जा। 2. पाठान्तर-चिट्ठज्जा।