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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
कल्याण कर्म सुनकर जाने, सुन पाप कर्म का ज्ञान करे।
दोनों ही सुनकर समझे नर, फिर श्रेय कर्म में ध्यान धरे ।। अन्वयार्थ-सोच्चा जाणइ कल्लाणं = संयम-यात्रा का पथिक सुनकर कल्याण-मार्ग को जानता है। पावगं = पाप-कर्म को । सोच्चा जाणड = सनकर जानता है। उभयपि = दोनों मार्गों को । सोच्चा जाणइ = सुनकर जानता है। जं सेयं = फिर जो कल्याणकारी हो। तं समायरे = उस मार्ग का आचरण करता है।
भावार्थ-ज्ञान प्राप्ति का मुख्य साधन श्रवण है। पुण्य और पाप का ज्ञान श्रवण से ही होता है, कल्याण की परम्परा में पर्युपासना का प्रथम फल श्रवण बतलाया है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि तथारूप श्रमण की पर्युपासना श्रवण फल वाली होती है। बताया गया है कि-1. प्रथम श्रवण । 2. श्रवण से ज्ञान । 3. ज्ञान से विज्ञान । 4. विज्ञान का फल प्रत्याख्यान । 5. प्रत्याख्यान का फल संयम । 6. संयम का फल अनाश्रव। 7. अनाश्रव का फल तप । 8. तप का फल व्यवदान । 9. व्यवदान का फल अक्रिया । और 10. अक्रिया का फल सिद्धि है। श्रवण से ही इन्द्रभूति आदि विद्वानों ने हृदय का अज्ञान दूर कर 14 पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया । ज्ञानी सुनने से ही पुण्य-पाप का ज्ञान प्राप्त कर श्रेय मार्ग को स्वीकार करता है।
जो जीवे वि न याणेइ, अजीवे वि न याणेइ।
जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजमं ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
जो जीवों को नहीं जानता, फिर अजीव का ज्ञान नहीं।
जीव अजीव बिना जाने, संयम का होता बोध नहीं ।। अन्वयार्थ-जो जीवे वि न याणेइ = जो जीवों को नहीं जानता है, और । अजीवे वि = अजीव को भी । न याणेइ = नहीं जानता है। जीवाजीवे अयाणंतो = जीव और अजीव को नहीं जानता हुआ । सो = वह । संजमं = संयम धर्म को। कहं नाहीइ = कैसे जान सकेगा।
भावार्थ-जो जीव, अजीव और जीवाजीवों को नहीं जानता वह संयम धर्म को कैसे जानेगा ? संसारी जीव 6 प्रकार के पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय । इनमें सूक्ष्म जीव फूलण, फफूंदी और संमूर्छिम पंचेन्द्रिय मनुष्य आदि को जानना कठिन है। संयम-धर्म के पालन के लिये जीव और अजीव तत्त्वों को जानना आवश्यक है। क्योंकि वह अज्ञान वश, अजीव को जीव समझ लेगा और जीव को अजीव समझ लेगा, इसलिए इनका ज्ञान करना जरूरी है।