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[दशवैकालिक सूत्र
भावार्थ-साधक जब द्रव्य से सिर मुंडन और भाव से कषाय मुंडन करके प्रव्रज्या स्वीकार करता है, तब हिंसा, असत्य आदि सम्पूर्ण आस्रव त्याग रूप सर्वश्रेष्ठ उत्कृष्ट संवर-धर्म को स्पर्श करता है, धारण करता है। इससे सर्वथा पाप कर्म का आश्रव नहीं होता, अतः पाप बन्ध से बच जाता है ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
जया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं 11 201
जब उत्तम धर्म सुसंवर के, पद को वह मुनि पा लेता है । तब आत्मिक अज्ञानजन्य, कर्माणु दूर कर देता है ।।
अन्वयार्थ-जया = जब । उक्किट्ठे = उत्कृष्ट । अणुत्तरं = प्रधान । संवरं धम्मं = संवर-धर्म को। फासे = स्पर्श करता है । तया = तब । अबोहिकलुसं कडं = मिथ्यात्व से उपार्जित। कम्मरयं = कर्म रूपी रज को । धुणड़ = झाड़ देता है, अलग कर देता है।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-जब साधक उत्कृष्ट संवर- धर्म, (जो पूर्ण अहिंसा, पूर्ण सत्य आदि रूप है, का स्पर्श करता हुआ छठे, सातवें गुणस्थान से 12वें गुणस्थान यथाख्यात संयम तक पहुँच जाता है) तब अज्ञान और कलुषित भाव से संचित (ज्ञानावरण आदि घाति) कर्मों की रज को धुनकर अलग कर देता है-यानी नष्ट कर देता है।
जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं ।
तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ।।21।।
जब आत्मिक अज्ञानजन्य, कर्माणु दूर कर देता है। तब सार्वत्रिक पूर्ण ज्ञान, और दर्शन को पा लेता है ।।
अन्वयार्थ-जया = जब । अबोहिकलुसं कडं = मिथ्यात्व के परिणाम से उपार्जित किये हुए । कम्मरयं | = कर्म रूपी रज को । धुणड़ = झाड़ देता है, अलग कर देता है । तया = तब । सव्वत्तगं = सभी पदार्थों को जानने वाले। नाणं = केवलज्ञान । च = और। दंसणं = केवल-दर्शन को । अभिगच्छइ प्राप्त कर लेता है ।
भावार्थ-साधक जब अज्ञान या कलुषित भाव से पूर्व में संचित कर्म - रज को आत्मा से अलग देता है, तब आवरण हटने से साधक की आत्मा अपने अनंत ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त शक्ति रूप निज