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[दशवैकालिक सूत्र असंसटेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा।
दिज्जमाणं न इच्छेज्जा, पच्छाकम्मं जहिं भवे ।।35।। हिन्दी पद्यानुवाद
असंसृष्ट कर से अथवा, कुड़छी या वैसे भाजन से।
देती भिक्षा ना ग्रहण करे, हो पश्चात्कर्म जहाँ तन से ।। अन्वयार्थ-असंसट्टेण = बिना भरे-अलिप्त । हत्थेण= हाथ । दव्वीए = चम्मच । वा= अथवा । भायणेण = भाजन से । दिज्जमाणं = दिये जाने वाले आहारादि को मुनि । न इच्छिज्जा (न इच्छेज्जा) = लेने की इच्छा नहीं करे । जहिं = जहाँ सचित्त जल आदि का आरम्भ । भवे = होने की सम्भावना हो। पच्छाकम्मं = वहाँ पश्चात् कर्म का दोष लगता है।
भावार्थ-जिस भिक्षा लेने के बाद सचित्त जल आदि का आरम्भ हो उसे पश्चात्कर्म दोष कहते हैं। साधु बिना भरे हाथ, चम्मच अथवा बर्तन से दी जाने वाली भिक्षा को लेने की इच्छा नहीं करे, कारण कि इसमें पश्चात्कर्म का दोष लगता है।
संसटेण य हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा।
दिज्जमाणं पडिच्छिज्जा, जं तत्थेसणियं भवे ।।36।। हिन्दी पद्यानुवाद
व्यंजनादि से लिप्त हाथ, कुड़छी या वैसे भाजन से।
दी जाती वैसी भिक्षा में, निर्दोष ग्रहण कर ले मन से ।। अन्वयार्थ-संसट्टेण य = और देने की वस्तु से भरे हुए । हत्थेण = हाथ । दव्वीए = चम्मच । वा = या । भायणेण = पात्र से । दिज्जमाणं = दिया जाने वाला आहार । जं = जो । तत्थ = वहाँ । एसणियं = निर्दोष । भवे = हो तो साधु । पडिच्छिज्जा (पडिच्छेज्जा) = स्वीकार करे।
__ भावार्थ-जहाँ भरे हुए हाथ, चम्मच अथवा बर्तन, दी जाने वाली वस्तु निर्दोष हो, तो साधु उसको ग्रहण करे।
दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए ।
दिज्जमाणं ण इच्छिज्जा, छंदं से पडिलेहए।।37।। हिन्दी पद्यानुवाद
मिलकर दो खाने वालों में, करे निमन्त्रित एक जहाँ। ना ले वैसी भिक्षा मुनि, देखे दाता का भाव वहाँ।।