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[दशवैकालिक सूत्र रही हो तो उसे छोड दे और खाने से बचा हो मनि वही ग्रहण करे। उसके आवश्यक पोषण में अन्तराय न आवे, इसका ध्यान रखे।
सिया य समणट्ठाए, गुव्विणी कालमासिणी।
उट्ठिआ वा निसीइज्जा, निसण्णा वा पुणुट्ठए।।40 ।। हिन्दी पद्यानुवाद
मुनि हित कोई गर्भवती, जो हो अतिशीघ्र प्रसव वाली।
भिक्षा हेतु उत्थित वह बैठे, या बैठी फिर हो जाय खड़ी।। अन्वयार्थ-सिया य = और कदाचित् । कालमासिणी = प्रसव के निकट समय वाली । गुठ्विणी = गर्भवती दात्री। समणटाए = साध को देने के लिये । उट्रिआ = खडी हई। निसीडज्जा = बैठ जाय। = अथवा । निसण्णा वा = बैठी हुई। पुणुट्ठए = पुनः खड़ी हो जाए।
भावार्थ-कदाचित् कोई पूरे मास वाली गर्भवती दात्री साधु को आहार देने के लिये खड़ी हुई बैठ जाय अथवा बैठी हुई फिर खड़ी हो जाय तो..... ।
तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।
दितियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पइ तारिसं ।।41।। हिन्दी पद्यानुवाद
उससे मिलने वाला भोजन, मुनि जन को है ग्राह्य नहीं।
मुनि भिक्षा दात्री से बोले, मुझको ऐसा है कल्प्य नहीं।। अन्वयार्थ-तं = वह । भत्तपाणं तु = आहार-पानी । संजयाण = साधुओं के लिये । अकप्पियं = अग्राह्य । भवे = होता है, इसलिये। दितियं = देने वाली से । पडियाइक्खे = बोले कि । मे = मुझको। तारिसं = वैसा आहार लेना । ण कप्पइ = नहीं कल्पता है।
भावार्थ-साधुओं के लिये वह आहार-पानी अग्राह्य होता है । अत: साधु देने वाली से स्पष्ट कह दे कि वैसा आहार उसको लेना योग्य नहीं है।
थणगं पिज्जमाणी, दारगं वा कुमारियं । तं निक्खिवित्तु रोयंतं, आहरे पाणभोयणं ।।42।।
हिन्दी पद्यानुवाद
दूध पिलाती पुत्र-पुत्रियों को, रोते छोड़ धरा ऊपर। नारी देवे अशन-पान तो, मुनि दे उसको वर्जित कर ।।