________________
[दशवैकालिक सूत्र
अन्वयार्थ-तहेव = उसी प्रकार । समणट्ठाए = साधु के लिये दाता । सचित्तं = सचित्त पदार्थ को । साह = अचित्त में मिलाकर अथवा । घट्टियाण (घट्टियाणि) = संघट्टा करके । य = और। णिक्खिवित्ताणं = सचित्त को अचित्त पर रखकर । उदगं = सचित्त पानी । समणट्टाए = साधु के लिये । संपणुल्लिया = हिलाकर देवे ।
92]
भावार्थ - इसी प्रकार साधु के लिये, सचित्त पदार्थ को एक पात्र से दूसरे में रखकर, संघट्टा करके अचित्त पर सचित्त को रखकर तथा सचित्त पानी इधर-उधर हिलाकर आहार देवे (तो वह अकल्पनीय है ) । ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाण- भोयणं । दिंतियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं ॥31॥
हिन्दी पद्यानुवाद
सचित्त जल में कर प्रवेश, देवे आहार तथा पानी । मुनि कहे गोचरी - दात्री से, ऐसा न कल्प्य भोजन पानी ।।
अन्वयार्थ-ओगाहइत्ता = सचित्त पानी में प्रवेश करके । चलइत्ता = सचित्त पानी में चलकर । पाण भोयणं = आहार- पानी । आहरे = देवे तो । दिंतियं = देती हुई उसे दात्री से, साधु । पडियाइक्खे कहे कि । तारिसं = इस प्रकार का आहार- पानी । मे = मुझे । ण = नहीं। कप्पड़ = कल्पता है ।
=
भावार्थ-वर्षा आदि के पानी में घुसकर तथा पानी में चलकर, आहार लाकर देवे तो मुनि देने वाली से निषेध की भाषा में कह दे कि उसे वैसा आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।
हिन्दी पद्यानुवाद
पुरेकम्मेण हत्थेण, दव्वीए भायणेण वा । दिंतियं पडियाइक्खे, ण मे कप्पड़ तारिसं । 13211
पुरः कर्मयुत् हाथों से, चमचा या भोजन-भाजन से । मुझको न कल्पता है ऐसा, मुनि कहे गोचरी - दात्री से ।।
अन्वयार्थ-पुरेकम्मेण = देने से पहले जहाँ सचित्त जल का आरम्भ हो । हत्थेण = ऐसे हाथ से । दव्वीए = चम्मच से । वा = अथवा । भायणेण = भाजन से । दिंतियं = आहारादि देने वाली दात्री से साधु । पडियाइक्खे = निषेध की भाषा में कहे कि । मे = मुझको । तारिसं = ऐसा पुरः कर्मयुक्त आहारादि । ण कप्पड़ = ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।
भावार्थ-पुरः कर्म वाले हाथ, चम्मच या बर्तन से आहार देवे तो साधु देने वाली से निषेध करते हुए कहे कि उसे वैसा आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है।