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[दशवैकालिक सूत्र पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे।।
वज्जंतो बीयहरियाई, पाणे य दगमट्टियं ।।3।। हिन्दी पद्यानुवाद
निज शरीर परिमित आगे, धरा देखकर गमन करे ।
बीज हरी या प्राण सचित्त, मिट्टी जल का ना हनन करे ।। अन्वयार्थ-पुरओ = सामने । जुगमायाए = चार हाथ अर्थात् अपने शरीर प्रमाण आगे। महिं = भूमि को । पेहमाणो = देखता हुआ । बीयहरियाई = बीज तथा हरी वनस्पति । पाणे य = और बेइन्द्रियादि प्राणी। दगमट्टियं = तथा जल और मिट्टी का । वज्जंतो = वर्जन करता हुआ । चरे = चले।
भावार्थ-इन दो गाथाओं में बताया जा रहा है कि, साधु को भिक्षा के लिए जाते समय कैसे चलना चाहिए-सबसे पहले मुनि चलते समय शरीर प्रमाण भूमि को आगे देखते हुए चले, कदाचित् मार्ग में कहीं बीज, धान्य के कण-मूंग, मोठ आदि, हरे पत्ते और कीड़े, मूंगे आदि प्राणी तथा सचित्त जल या मिट्टी हो तो इनका वर्जन करते हुए चले । बिना देखे चलने से जीव-हिंसा की सम्भावना हो सकती है।
ओवायं विसमं खाणु, विज्जलं परिवज्जए।
संकमण ण गच्छेज्जा, विज्जमाणे परक्कमे ।।4।। हिन्दी पद्यानुवाद
निम्न भूमि या विषम स्थाणु, और पंकिल-पथ को मुनि छोड़े।
शुभ पथ के होते विषम मार्ग, चल श्रमण न मर्यादा तोड़े।। अन्वयार्थ-परक्कमे = दूसरे मार्ग के। विज्जमाणे = विद्यमान होते हुए। ओवायं = जिस मार्ग में गड्ढा हो । विसमं = जो मार्ग ऊँचा-नीचा हो । खाणुं = जिस मार्ग में कटे हुए छोटे झाड़ के डंठल हों। परिवज्जए = उस मार्ग को छोड़ दे और । विज्जलं = कीचड़ से भरे होने से जिस मार्ग से जाते समय काठ या पत्थरादि से उस कीचड़ का उल्लंघन करना पड़े। संकमेण = उस कीचड़ भरे मार्ग को लाँघकर मुनिजन । ण गच्छेज्जा = नहीं जावे।
भावार्थ-कभी मार्ग में चलते हुए गड्ढा, विषम जगह, खाणु और कीचड़ वाला स्थान हो तो मुनि उसको छोड़ दे। वैसे मार्ग में चलने से गिरने-पड़ने का भय रहता है। साधु अच्छा मार्ग होते हुए ईंट-लकड़ी
आदि के बने अस्थायी कच्चे पुल आदि से गमन नहीं करे। जिस मार्ग से छोटे-बड़े जीवों की अच्छी तरह रक्षा की जा सके, वैसे ही मार्ग से गमन करे।
पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। हिंसेज्ज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ।।5 ।।