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पाँचवाँ अध्ययन]
[87 गोयरग्गपविट्ठो य, वच्चमुत्तं न धारए ।
ओगासं फासुयं नच्चा, अणुन्नविय वोसिरे ।।19।। हिन्दी पद्यानुवाद
मल मूत्र वेग को ना रोके, भिक्षा में गए हुए मुनिजन ।
प्रासुक स्थण्डिल में त्यागे, लेकर गृहस्थ आदेश वचन ।। अन्वयार्थ-गोयरग्गपविट्ठो य = और गोचरी में गया हुआ साधु । वच्चमुत्तं = मल-मूत्र की शंका। न (ण) धारए = नहीं रक्खे किन्तु । फासुयं = निर्जीव। ओगासं = अवकाश स्थान । नच्चा (णच्चा) = जानकर । अणुन्नविय (अणुण्णविय) = वहाँ अनुमति लेकर । वोसिरे = मल-मूत्रादि का विसर्जन करे।
भावार्थ-गोचरी के लिये जाने वाला साधु, मल-मूत्र की शंका को नहीं रोके; कदाचित् ध्यान देते हुए भी कभी चलते मार्ग में शंका हो जाय तो, जीवजन्तु रहित निर्दोष स्थान ढूँढकर, घर वाले की अनुमति से वहाँ मलादि त्याग करे । मल-मूत्र को रोकने से शरीर में बाधा-पीड़ा हो सकती है और वह असमाधि का कारण हो सकता है।
णीयं दुवारं तमसं, कुट्टगं परिवज्जए।
अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहगा ।।20।। हिन्दी पद्यानुवाद
नीचे द्वार प्रकाश रहित, कोठे में भिक्षा करे नहीं।
है जहाँ न आँखों का प्रसार, प्रतिलेखन सम्भव वहाँ नहीं।। अन्वयार्थ-णीयं दुवारं (नीयं दुवार) = नीचे द्वार वाले । तमसं = अन्धकार युक्त । कुट्ठगं (कोट्ठगं) = कोठे में । परिवज्जए = नहीं जावे । जत्थ = जहाँ पर । अचक्खुविसओ = चक्षु इन्द्रिय का विषय नहीं होता । पाणा = कीट-पतंगादि प्राणियों को । दुप्पडिलेहगा = जहाँ देखना कठिन होता है।
भावार्थ-जैन साधु जीव दया प्रधान वृत्ति वाले होते हैं । इस दृष्टि से कहा गया है कि जिस घर का दरवाजा अधिक नीचा और अन्धकार पूर्ण हो साधु वहाँ नहीं जावे, क्योंकि वहाँ प्रकाश की बराबर पहुँच नहीं होने से कीट पतंगादि सूक्ष्म जीवों को देखना एवं उनकी रक्षा करना कठिन होता है।
जत्थ पुप्फाइं बीयाई, विप्पइण्णाई कुट्टए। अहुणोवलित्तं उल्लं, दट्टणं परिवज्जए ।।21।।