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पाँचवाँ अध्ययन] था। आगन्तुक ने पूछा-क्या आप धर्म कथा वाचक अथवा वादी हैं? महिमा पूजा के लिये चुप रहता है, या हाँ करता है, अथवा बोलता है-साधु ही धर्म कथा वाचक और वादी होते हैं। यह वचन-स्तेन रूप है। इसी प्रकार रूप-स्तेन, आचार-स्तेन और भाव-स्तेन को समझना चाहिये ।। (जि.चू.पृ. 204)
प्रथम उद्देशक सम्पत्ते भिक्खकालम्मि, असंभंतो अमुच्छिओ।
इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ।।1।। हिन्दी पद्यानुवाद
भिक्षाकाल प्राप्त होने पर, आकांक्षा उद्वेग रहित ।
भक्त पान को ढूँढे मुनिजन, आगे कहे विधान सहित ।। अन्वयार्थ-भिक्खकालम्मि = भिक्षा का समय । संपत्ते = प्राप्त होने पर साधु । असंभंतो = मन की व्याकुलता एवं उद्वेग से मुक्त होकर । अमुच्छिओ = आहार आदि में मूर्छारहित होकर । इमेण = इस आगे बताये जाने वाली । कमजोगेण = विधि से । भत्तपाणं = आहार एवं पानी की। गवेसए = गवेषणा करे।
भावार्थ-साधु जब भिक्षा का समय हो जाय तब जल्दबाजी और भोजन में मूर्छाभाव न लाते हुए, आगे क्रम से जो विधि बताई गई है, उसके अनुसार गृहस्थ के घरों में जाकर आहार-पानी की गवेषणा करे। साधु को संयम-यात्रा के निर्वाह और शरीर-धारण के लिये ही आहार करना बताया गया है।
से गामे वा णगरे वा, गोयरग्गगओ मुणी।
चरे मंदमणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेयसा ।।2।। हिन्दी पद्यानुवाद
चाहे ग्राम नगर में हो, भिक्षा लेने को गया श्रमण।
अनुद्विग्न और शान्तचित्त हो, धीरे-धीरे करे गमन ।। अन्वयार्थ-से मुणी = वह मुनि । गामे वा, नगरे वा = गाँव में अथवा नगर में । गोयरग्गगओ = गोचरी के हेतु गया हुआ । अणुव्विग्गो = उद्वेग रहित । अव्वक्खित्तेण चेयसा = स्थिर शान्तचित्त से । मंद = मन्द गति से । चरे = विधि पूर्वक चले।
भावार्थ-भिक्षा के लिए गया हुआ साधु, गाँव या नगर में उद्वेग और चित्त की चंचलता रहित होकर (गाँव में उचित्त वस्तु की प्राप्ति नहीं होगी और नगर में दूर जाना पड़ेगा, इस तरह के विचारों से मन को उद्विग्न किये बिना) मन्द गति से जावे, क्योंकि मुनि के लिये भिक्षाचर्या भी तप है।