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चतुर्थ अध्ययन] हिन्दी पद्यानुवाद
जब देव मानुषी भोगों पर, तन मन से ध्यान नहीं देता । तब बाह्याभ्यंतर ममता को, वह सहज रूप से तज देता ।।
अन्वयार्थ-जे दिव्वे = जो देव सम्बन्धी । य = और। जे माणुसे = जो मनुष्य सम्बन्धी । भोए = काम भोगों की । जया = जब । निव्विंदए = असारता समझकर उन पर अरुचि करता है । तया = तब । सब्धिंतरं (सब्धिंतर) बाहिरं = आभ्यंतर और बाह्य । संजोगं = संयोग को । चयइ = छोड़ देता है।
हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-ज्ञान से भोगों की असारता समझकर जब देव और मनुष्य भव के भोगों में साधक को विरक्ति होती है, तब बाह्य संयोग-धन, धान्य, पुत्र मित्रादि तथा आभ्यन्तर संयोग-क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का वह परित्याग कर देता है ।
जया चयइ संजोगं, सब्भिंतरं बाहिरं । तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारियं ।।18।
जब बाहर भीतर की ममता का, त्याग सहज में कर देता । तब मुण्डित होकर इस जग में, साधुत्व प्राप्त है कर लेता ।।
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अन्वयार्थ-जया = जब । सब्भिंतरं बाहिरं = आभ्यंतर और बाह्य । संजोगं = संयोगों को । चयइ = छोड़ देता है । तया = तब। मुंडे = द्रव्य और भाव से मुण्डित । भवित्ता णं = होकर । अणगारियं = अणगारवृत्ति को । पव्वइए = ग्रहण करता है ।
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हिन्दी पद्यानुवाद
भावार्थ-जब धन-धान्यादि और क्रोध, लोभादि द्रव्य एवं भाव संयोगों का साधक त्याग कर देता है, तब वह मुण्डित होकर श्रमण धर्म को स्वीकार करता है ।
जया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं । तया संवरमुक्किट्ठ, धम्मं फासे अणुत्तरं ।।19।।
जब मुण्डित होकर इस जग में, साधुत्व प्राप्त कर लेता है । तब उत्तम धर्म सुसंवर के, पद को वह मुनि पा लेता है।।
अन्वयार्थ-जया = जब । मुंडे = द्रव्य और भाव से मुण्डित । भवित्ताणं = होकर । अणगारिय अणगारवृत्ति । पव्वइए = ग्रहण करता है । तया = तब । उक्किट्ठ = उत्कृष्ट । अणुत्तरं = सर्वश्रेष्ठ । संवरं धम्मं = संवर-धर्म को । फासे = स्पर्श करता है ।
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