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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
जिनको प्यारा तप संयम है, क्षान्ति और सतशील प्रधान ।
पिछली वय में आकर भी वे, पा लेते हैं अमर विमान ।। अन्वयार्थ-जेसिं = जिनको । तवो = तपस्या । य = और । संजमो = संयम । खंती = क्षमा । य = और । बंभचेरं य = ब्रह्मचर्य । पिओ = प्रिय हैं ऐसे साधक यदि । पच्छावि = पिछली अवस्था में भी। पयाया = साधना-मार्ग को स्वीकार करते हों तो। ते = वे। खिप्पं = शीघ्र। अमरभवणाई = स्वर्गलोक को । गच्छंति = प्राप्त करते हैं।
भावार्थ-पिछली अवस्था में दीक्षा ग्रहण करके भी वे साधक शीघ्र देवभवन को प्राप्त करते हैं, जिनको तप, संयम, क्षमा और ब्रह्मचर्य के सद्गुण प्यारे हैं । अर्थात् साधना के फलस्वरूप देवगति के सुफल प्राप्त होते हैं।
इच्चे यं छज्जीवणियं, सम्मदिट्ठी सया जए। दुल्लहं लहित्तु सामण्णं, कम्मुणा ण विराहिज्जासि ।।29।।
त्ति बेमि। हिन्दी पद्यानुवाद
इस प्रकार षट्जीव निकाय में, समदृष्टि सदा शुभ यत्न करे।
दुर्लभ श्रमण धर्म पाकर, ना जीव विराधन कर्म करे ।। अन्वयार्थ-इच्चेयं = पूर्वोक्त स्वरूप वाले इस । छज्जीवणियं = षट्जीवनिकाय के जीव समूह की। सम्मदिट्ठी = सम्यग्दृष्टि साधक । सया = सदा । जए = यतना करे । दुल्लहं = दुर्लभ । सामण्णं = श्रमण-धर्म को। लहित्तु = प्राप्त कर । कम्मुणा = मन, वचन, काया की क्रिया से । ण विराहिज्जासि = कभी विराधना नहीं करे । त्ति बेमि = श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि जैसा मैंने भगवान महावीर स्वामी से सुना है, वैसा ही मैं तुम्हें कहता हूँ।
भावार्थ-इस प्रकार पूर्व कथित, इस षट्जीवनिकाय के जीव समूह की सम्यक् दृष्टि साधक सदा यतना करे, क्योंकि श्रमण धर्म की प्राप्ति प्रबल पुण्य के उदय और अशुभ कर्म के क्षयोपशम से होती है। अत: दुर्लभ श्रमण-धर्म को पाकर तन, मन और वाणी से उसकी विराधना-खण्डना न हो, इसका सदा ध्यान रखना चाहिये।
त्ति बेमि = (इति ब्रवीमि) ऐसा मैं कहता हूँ।
।।चतुर्थ अध्ययन समाप्त ।। 8282828282828