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चतुर्थ अध्ययन] बैठावे नहीं । न तुअट्टाविज्जा = सुलावे नहीं । अन्नं गच्छंतं वा = दूसरे चलते हुए को । चिट्ठतं वा = खड़े रहने वाले को । निसीअंतं वा = बैठे हुए को । तुअटुंतं वा = सोते हुए को । न समणुजाणिज्जा = भला भी न जाने । जावज्जीवाए = जीवन पर्यन्त । तिविहं तिविहेणं
.....अप्पाणं वोसिरामि॥ तीन करण और तीन योग से मन, वचन और काया से, नहीं करूँगा, न करवाऊँगा, करने वाले दूसरे का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। पहले की हुई वनस्पतिकाय की विराधना का हे भगवन् ! मैं प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षी से निन्दा करता हूँ, गुरु-साक्षी से गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा को वनस्पतिकाय की विराधना से हटाता हूँ।
भावार्थ-इस सूत्र में वायुकाय के पश्चात् वनस्पतिकाय की हिंसा-वर्जन का संकल्प किया जाता है। संयत-विरत आदि गुण वाला साधु-साध्वी कन्दमूल आदि दस प्रकार की वनस्पति में से किसी की विराधना नहीं करे । व्यवहार में जिनसे काम पड़ता है, उनको मुख्य रूप से लक्ष्य में रख करके कहा जाता है कि बीजों पर, अंकुरों, हरित, दूब आदि तत्काल के कटे शाखा, पत्र, फल, फूल सचित्त ऐसे ही बीजादि पर रखे फलक, चटाई आदि पर चलना नहीं, खड़ा नहीं रहना, बैठना नहीं, लेटना नहीं, दूसरों से गमन आदि क्रिया करवाना नहीं, चलते हुए, खड़े रहते, बैठते या सोते हुए अन्य का अनुमोदन भी करना नहीं, जीवन पर्यन्त तीन करण और तीन योग से । भिक्षु प्रतिज्ञा की भाषा में कहता है- “मन, वचन और काया से वनस्पति का आरम्भ स्वयं करूँगा नहीं, दूसरों से करवाऊँगा नहीं, वैसे वनस्पति के आरम्भ करने वाले का अनुमोदन भी करूँगा नहीं। पहले अज्ञानवश जो वनस्पति की विराधना हो चुकी है, उसके लिये प्रतिक्रमण करता हूँ, आत्म-साक्षी से पाप की निन्दा करता हूँ, गुरु की साक्षी से गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा को विराधना से अलग करता हूँ। अब ऐसी विराधना कभी नहीं करूँगा।"
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से कीडं वा, पयंगं वा, कुंथु वा, पिविलियं वा, हत्थंसि वा, पायंसि वा, बाहुंसि वा, उरुंसि वा, उदरंसि वा, सीसंसि वा, वत्थंसि वा, पडिग्गहंसि वा, कंबलंसि वा, पायपुच्छणंसि वा, रयहरणंसि वा, गोच्छगंसि वा, उडगंसि वा, दंडगंसि वा, पीढगंसि वा, फलगंसि वा, सेज्जंसि वा, संथारगंसि वा, अन्नयरंसि वा, तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिय-पडिलेहिय, पमज्जिय-पमज्जिय एगंतमवणिज्जा नो णं संघायमावज्जेज्जा ।।23।