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[दशवैकालिक सूत्र हिन्दी पद्यानुवाद
संयत विरत और पापों का, निषेध या प्रतिघात किया। भिक्षु भिक्षुणी एकाकी, अथवा परिषद् में भाग लिया ।। हो काल दिवस या रजनी का, जाग्रत या निद्रावस्था का। ऐसे ही सेवा पठन हेतु, श्रम खिन्न भाव में रहने का ।। बीजों पर या बीज प्रतिष्ठित, आसन शयन पदार्थों पर । अंकुरित वनस्पति या उन पर, रक्खे शयनादिक साधन पर ।। हरितों पर या हरित प्रतिष्ठित, छिन्न हरित के भागों पर । गमन स्थिति या उपवेशन, इन पर करना होता दुःख कर ।। ऐसे न चलावे औरों को, बैठावे और न खड़ा करे । नहीं सुलावे परजन को, जीवों की रक्षा ध्यान धरे ।। हरितों पर चलते या ठहरे, बैठे या सोते अन्यों को। भला न जाने विराधना, करने वाले प्राणी गण को ।। तीन करण और तीन योग से, मन से वचन तथा तन से । करूँ न करवाऊँ जीवन भर, भला नहीं मानूँ मन से ।। कृत पाप कर्म से हटता हूँ, आत्मा से निन्दा करता हूँ।
गर्दा करता गुरुदेव ! हृदय से, दोषों को अब मैं तजता हूँ।। अन्वयार्थ-से भिक्खू. ........... जागरमाणे वा।
वह साधु अथवा साध्वी जो संयमवान् पाप से विरक्त, कर्म की स्थिति को कम करने वाले, भविष्य में पाप कर्म का प्रत्याख्यान करने वाले, दिन में अथवा रात में, एकाकी अथवा समूह में रहे हुए, सोये या जाग्रत दशा में
से बीएसु वा = उन बीजों पर । बीयपइढेसु वा = बीज पर रखे आसन आदि पर । रूढेसु वा = अंकुरों पर । रूढपइटेसु वा = अंकुरित वनस्पति पर रखे आसनादिकों पर । जाएसु वा = उत्पन्न हुई वनस्पति पर । जाय पइट्रेस वा = उत्पन्न वनस्पति पर रखे हए आसन आदि पर । हरिएस वा = दूब आदि हरित पर । हरिय पइढेसु वा = हरित पर रखे हुए आसनादिकों पर । छिन्नेसु वा = कटी हुई डाल पर । छिन्न पइडेसु वा = कटी हुई डाल पर रहे हुए आसन आदि पर । सचित्तेसु वा = सचित्त वनस्पति पर । सचित्त कोलपडिनिस्सिएसु वा = जिसमें घुन लगे हों ऐसे काष्ठ आदि पर । न गच्छिज्जा = चलें नहीं। न चिट्ठिज्जा = खड़ा रहे नहीं। न निसीइज्जा = बैठे नहीं। न तुअट्टिज्जा = सोवे नहीं। अन्नं = अन्य (दूसरे) को । न गच्छाविज्जा = चलावे नहीं। न चिट्ठाविज्जा = खड़ा करावे नहीं। न निसीआविज्जा =