________________
54]
हिन्दी पद्यानुवाद
संयत विरत और पापों का, निषेध या प्रतिघात किया । भिक्षु भिक्षुणी एकाकी, अथवा परिषद् में स्थान लिया ।। हो काल दिवस या रजनी का, जाग्रत या निद्रावस्था का । ऐसे ही सेवा पठन हेतु, श्रम खिन्न भाव में रहने का । अग्निकाय में इंगारक, मुर्मुर अर्चि या ज्वाला को । तेज करे ना तृणाग्रवर्ती, अनलजीव वध करने को ।। नहीं बुझवावे औरों से, जलवाना आदिक करे नहीं । घर्षण या भेदन आदि क्रिया, जलवाये उसको कभी नहीं ।। प्रज्वालन ना करवावे और, नहीं किसी से बुझवावे | अंगारक भेदन- छेदन भी, नहीं अन्य किसी से करवावे || अनल जलाते भेदन करते, या घर्षण करते जन को । भला न समझे व्रती जीव, प्रज्वालक या निर्वापक को ।। तीन करण या तीन योग से, मन वचन तथा अपने तन से । करूँ न करवाऊँ जीवन भर, भला नहीं मानूँ मन से ।। होता उससे दूर तथा, आत्मा से निन्दा करता हूँ । गर्हा करता हूँ पूज्य प्रभो ! मैं हिंसा मन से तजता हूँ । अन्वयार्थ - से भिक्खू .. , जागरमाणे वा ।।
[दशवैकालिक सूत्र
वह साधु अथवा साध्वी जो संयत-विरत पापकर्म का हनन करने वाले तथा भविष्य काल में पाप के त्यागी, दिन में, रात में एकाकी अथवा सभा में सोये या जाग्रत दशा में
को ।
T
जलते हुए
से अगणिं वा = अग्नि को । इंगालं वा = अंगारे को। मुम्मुरं वा = मुरमुर ( चिनगारी) अच्चिं वा = अर्चि (दीप - शिखा ) को । जालं वा = अग्नि की ज्वाला को । अलायं वा = लकड़ी के छोर को । सुद्धागणिं वा = धुँवारहित आग को । उक्कं वा = उल्का आदि को । न उंजिज्जा = लकड़ी सरका कर बढ़ावे नहीं । न घट्टिज्जा = न घर्षण करे ( घिसे) । न भिंदिज्जा = न भेदन करे । न उज्जालिज्जा = लकड़ी डालकर जलावे नहीं । न पज्जालिज्जा = प्रज्वलित करे नहीं। न निव्वाविज्जा
=
: बुझावे नहीं । अन्नं न उंज्जाविज्जा = अन्य से लकड़ी डालकर बढ़वावे नहीं । न घट्टाविज्जा = अग्नि का घर्षण करावे नहीं । न भिंदाविज्जा = भेदन करावे नहीं । न उज्जालाविज्जा = जलवावे नहीं । न पज्जालाविज्जा = विशेष जलवावे नहीं । न निव्वाविज्जा = बुझवावे नहीं । अन्नं उजंतं वा =
लकड़ी