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चतुर्थ अध्ययन तीन करण और तीन योग से मन वचन तथा काया से-पृथ्वी का आरम्भ करे नहीं, कराए नहीं, करने वाले का अनुमोदन भी करे नहीं। तस्स भंते!.
वोसिरामि। हे भगवन् ! पूर्वकृत पाप का प्रतिक्रमण करता हूँ, निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ।
भावार्थ-आचारांग सूत्र के चतुर्थ सम्यक्त्व अध्ययन से प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा नहीं करना ही धर्म कहा है। पृथ्वीकाय भी सजीव है, इसलिये हिंसा से उपरत संयमी मुनि दिन हो या रात, एकान्त में हो या समूह में, सुप्त दशा में हो या जाग्रत दशा में, सचित्त पृथ्वीकाय की विराधना नहीं करता।
बादर पृथ्वीकाय के अनेक प्रकार हैं-खान से निकलने वाले सोना, चाँदी, अभ्रक, हीरा और पाषाण आदि पृथ्वीकायिक हैं। खान में रहे हुए पाषाण आदि का बढ़ना यह उनकी सजीवता का लक्षण है। अत: प्राणिमात्र के खेदज्ञ प्रभु ने इन पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा को भी अहितकर-अशुभ माना है। अत: संयमी पुरुष धूप, अग्नि, पानी तथा नागरिकों के चलने-फिरने आदि से अचित्त रूप से परिणमन पाई हुई पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य पृथ्वी पर कोई गमनागमन क्रिया नहीं करते।
से भिक्खूवा, भिक्खुणी वा, संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मे, दिआ वा, राओ वा, एगओ वा, परिसागओ वा, सुत्ते वा, जागरमाणे वा, से उदगं वा,
ओसं वा, हिमं वा, महियं वा, करगं वा, हरितणुगंवा, सुद्धोदगंवा, उदउल्लं वा कायं, उदउल्लं वा वत्थं, ससिणिद्धं वा कायं, ससिणिद्धं वा वत्थं, न आमुसिज्जा, न संफुसिज्जा, न आवीलिज्जा, न पवीलिज्जा, न अक्खोडिज्जा, न पक्खोडिज्जा, न आयाविज्जा, न पयाविज्जा, अन्नं न आमुसाविज्जा, न संफु साविज्जा, न आवीलाविज्जा, न पवीलाविज्जा, न अक्खोडाविज्जा, न पक्खोडाविज्जा, न आयाविज्जा, न पयाविज्जा, अन्नं आमुसंतं वा, संफुसंतं वा, आवीलंतं वा, पवीलंतं वा, अक्खोडंतं वा, पक्खोडतं वा, आयावंतं वा, पयावंतं वा न समणुजाणिज्जा। जावज्जीवाए, तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करतं पि अन्नं न समणुजाणामि।
तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।।1।।