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चतुर्थ अध्ययन]
[41 पच्चक्खामि । से कोहा वा, लोहा वा, भया वा, हासा वा, नेव सयं मुसं वइज्जा (वएज्जा), नेवन्नेहिं मुसं वायाविज्जा (वायावेज्जा) मुसं वयंते वि अन्ने न समणुज्जाणिज्जा (समणुजाणेज्जा), जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि।
दुच्चे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
द्वितीय महाव्रत मृषावाद-विरमण नामक कहलाता है। भन्ते ! मृषावाद का इसमें, वर्जन करना पड़ता है ।। क्रोध लोभ भय हास्य निमित्तक, झूठ नहीं मैं बोलूँगा।
औरों से नहीं कहलाऊँगा, कहते को भला न मानूँगा ।। त्रिविध करण और त्रिविध योग, मन वचन और अपने तन से । कहूँ न कहलाऊँ मैं मिथ्या, भला नहीं मानूँ मन से । होता मिथ्या से अलग और, निन्दा गर्दा मैं करता हूँ।
द्वितीय महाव्रत मृषावाद, विरमण को धारण करता हूँ ।। अन्वयार्थ-अहावरे = अब आगे। भंते ! = हे भगवन् ! दुच्चे महव्वए = दूसरे महाव्रत में। मुसावायाओ = मृषावाद से । वेरमणं = विरति होती है। भंते ! = हे पूज्य ! सव्वं = सब प्रकार के। मुसावायं = मृषावाद का । पच्चक्खामि = प्रत्याख्यान करता हूँ। से = वह मृषावाद । कोहा वा = क्रोध से। लोहा वा = लोभ से । भया वा = भय से, अथवा । हासा वा = हास्य के वश । सयं = स्वयं । मुसं = मृषावाद । नेव वइज्जा = बोलूँगा नहीं। अन्नेहिं = दूसरों को भी । मुसं = मृषावाद । नेव वायाविज्जा = बोलाऊँगा नहीं।
मुसं वयंते वि अन्ने .............. अन्नं न समणुजाणामि ।
मृषा (झूठ) बोलने वालों को अच्छा भी नहीं समझूगा, यावज्जीवन अर्थात् जीवन भर के लिये, तीन करण तीन योग से, मन से, वचन से, काया से, स्वयं मृषा बोलूँगा नहीं, दूसरों से बुलवाऊँगा नहीं और मृषा बोलने वाले का अनुमोदन भी करूंगा नहीं।
तस्संभंते......... ............... वोसिरामि।
हे भगवन् ! मैं अतीत में किये गये मृषावाद से, निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से उसकी गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग (परित्याग) करता हूँ।