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[दशवैकालिक सूत्र तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते ! पडि-क्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ।
पंचमे भंते ! महव्वए उवट्ठिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं।।15।। हिन्दी पद्यानुवाद
परिग्रह विरमण पंचम व्रत, मैं भलीभाँति अपनाता हूँ। हे भदन्त ! सब तरह परिग्रह, से मन को दूर हटाता हूँ।। चाहे थोड़ा या बहुत अधिक, अणु अथवा स्थूल परिग्रह हो। हो सचित्त अथवा अचित्त, लेना मन के अनुरूप न हो ।। ना स्वयं परिग्रह ग्रहण करूँ, औरों से ग्रहण कराऊँ ना। तथा परिग्रह रखने वाले, को भी अच्छा मानूं ना ।। तीन करण और तीन योग से, मन से वचन तथा तन से। करूँ न करवाऊँ संग्रह को, भला नहीं जानूँ मन से ।। करता भदन्त ! सब संग्रह त्याग, निन्दा गर्दा मैं करता हूँ।
परिग्रह विरमण व्रत पालन में, अब मन को अर्पण करता हूँ।। अन्वयार्थ-अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए = भगवन् ! अब पंचम महाव्रत में। परिग्गहाओ वेरमणं = परिग्रह से निवृत्ति की जाती है। सव्वं भंते ! परिग्गहं पच्चक्खामि = हे पूज्य ! मैं सर्वथा परिग्रह का त्याग करता हूँ। से गामे वा नगरे वा = वह गाँव, नगर या । रपणे वा = वन में । अप्पं वा बहुं वा = थोड़ा या बहुत । अणुंवा थूलं वा = छोटा अथवा बड़ा । चित्तमंत्तं वा अचित्तमंतं वा = सचित्त या अचित्त कोई। नेव सयं परिग्गहं परिगिव्हिज्जा = परिग्रह स्वयं ग्रहण करूँगा नहीं। नेवन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविज्जा = दूसरों से परिग्रह ग्रहण करवाऊँगा नहीं।
परिग्गहं परिगिण्हंते वि...........अन्नं न समणुजाणामि।
परिग्रह ग्रहण करने वाले अन्य का अनुमोदन भी करूँगा नहीं। जीवन पर्यन्त तीन करण और तीन योग से, मन वचन और काया से परिग्रह का संग्रह करूँगा नहीं, दूसरों से करवाऊँगा नहीं, परिग्रह का संग्रह करने वाले अन्य को भला समदूंगा नहीं। तस्स भंते!..
.वोसिरामि। हे भगवन् ! पहले जो परिग्रह किया है, उसका मैं प्रतिक्रमण करता हूँ निन्दा करता हूँ, गुरु साक्षी से गर्दा करता हूँ और पापकारी आत्मा का व्युत्सर्ग करता हूँ। पंचमे भंते ...
.वेरमणं। हे भगवन् ! मैं पाँचवें महाव्रत में उपस्थित हुआ हूँ। अब परिग्रह करने से सर्वथा निवृत्ति करता हूँ।