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[दशवेकालिक सूत्र
20. तेगिच्छं-उत्तराध्ययन सूत्र के परीषह अध्ययन में रोग को समभाव से सहन करने और चिकित्सा का अभिनन्दन नहीं करने का उपदेश दिया गया है। मृगापुत्र को माता ने कहा- “दुक्खं निप्पडियकम्मया ।” उत्तर में मृगापुत्र ने कहा - " मृग की कौन चिकित्सा करता है ? मैं मृग की तरह रहूँगा।” चिकित्सा वर्जन यह मुनियों का आदर्श मार्ग है। इसका पालन विशिष्ट शक्तिशाली मुनि ही कर पाते हैं। सामान्य मुनियों के लिए सावद्य चिकित्सा ही अनाचीर्ण है, निर्वद्य नहीं। श्रावक के अतिथि संविभाग व्रत में औषध-भैषज्य का भी उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सबके लिए सब स्थितियों में चिकित्सा अनाचीर्ण नहीं है ।
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21. पाहणापाये (उपानत् ) - जैन श्रमण के लिये काष्ठ, चमड़े और रबड़ आदि के जूते पहनना अनाचीर्ण है। जैन साधु त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा के त्यागी हैं। कांटों, कीलों की चुभन और भूमि के ताप को सहकर भी वे खुले पैर चलते हैं, ताकि जूते के नीचे दबकर किसी सूक्ष्म-स्थूल जीव की हिंसा न हो। वैदिक परम्परा में संन्यासी के लिये जूता न रखकर लकड़ी की पादुका के उपयोग का विधान है पर जैन परम्परा में जैन श्रमण परीषह सहने और हिंसा से बचने के लिये जूते-चप्पल एवं पादुका का भी उपयोग नहीं करते ।
22. समारंभ जोइणे (ज्योति -समारंभ ) - चूल्हे, विद्युत् आदि की ज्योति का उपयोग करना अनाचीर्ण है। शास्त्र में कहा गया है कि साधु अग्नि को सुलगाने की इच्छा भी नहीं करते, क्योंकि यह बड़ा पापकारी शस्त्र है। लोहे के अस्त्र-शस्त्रों की अपेक्षा भी यह अधिक तीक्ष्ण और सब ओर से दुराश्रय है। यह सब दिशा- अनुदिशा में चलता है। खाना पकाना, पकवाना, जलना, जलवाना, उजाला करना आदि से अग्नि की विराधना होती है। अग्नि का आरम्भ (उपयोग) करने वाले पृथ्वी, तृण और काष्ठ के आश्रित रहने वाले जीवों का भी वध करते हैं । अत: यह भी साधु के लिये अनाचार है।
23. सिज्जावर पिंड ( शय्यातर पिंड) - शय्यातर का आहार आदि लेना अनाचीर्ण है। साधु को रहने के लिए मकान देने वाला शय्यातर कहा गया है। वह आचारांग और निशीथ सूत्र के अनुसार गृह स्वामी या उसके द्वारा संदिष्ट हो सकता है। जैसाकि कहा है- सेज्जातरो पभुआ, पभु संदिट्ठो वा होति कातव्वो । नि. भा. ।
शय्यार कब होता है, इस सम्बन्ध में निशीथ भाष्य में 14 मत प्रस्तुत कर अन्त में अपना मत बतलाया है किसाधु रात में जिस उपाश्रय, स्थान या घर में रहे, सोये और चरम प्रहर का आवश्यक करे उसका स्वामी शय्यातर है । शय्या के घर के अशन-पान, खाद्य-स्वाद्य, वस्त्र पात्र आदि साधु के लिए अग्राह्य होते हैं; तृण, राख, पाट, चौकी, शिष्याशिष्य नहीं । शय्यातर पिंड लेने से उद्गम आदि दोषों की सम्भावना रहती है। दाता को भार प्रतीत होना भी सम्भव है । अत: इसे अग्राह्य कहा है।
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24. आसंदी बैठने के आसन विशेष को आसंदी कहते हैं। टीकाकार के अनुसार मूंज, सण या सूत आदि द्वारा गूँथे हुए खाट तथा कुर्सी आदि साधु के लिए अग्राह्य हैं। आसंदी में प्रतिलेखना संभव नहीं होती। अतः यह अनाचीर्ण है।
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25. पलियंकए (पर्यङ्क) - शयन के उपयोग में आवे, उसे पर्यङ्क कहते हैं । वेत्र (बैंत) आदि के आसन भी इसी
के अन्तर्गत समझे जाने चाहिए। खाट और आसालक आदि का प्रतिलेखन कठिन होता है, इससे जीवों की हिंसा सम्भव है। मंच आसालक, निषद्या और पीठ को भी आसंदी में ही समझना चाहिए। सर्वज्ञ वचनों में श्रद्धा रखने वाले साधु इन पर न बैठे, न सोये।