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[दशवैकालिक सूत्र का निषेध किया गया है। चूर्णिकार अगस्त्यसिंह ने-ग्रीष्म काल में एक दिन-रात के बाद गर्म पानी फिर सचित्त होना माना है तथा हेमन्त और वर्षा ऋतु में पूर्वाह्न में गर्म किया हुआ जल अपराह्न में सचित्त माना है। जैसे अचित्त जल काल अवधि पूर्ण हो जाने से फिर से सचित्त हो जाता है, वैसे ही बहुत समय तक पड़ा रहकर अचित्त भी सचित्त हो जाता है, क्योंकि जल की सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों योनियाँ हैं।
स्थानांग सूत्र के तीसरे अध्ययन में कहा है-“तिविहा जोणी पन्नत्ता तं जहा सचित्ता, अचित्ता, मीसिया।" एवं “एगिदियाणं, विगलिंदियाणं समुच्छिम-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं संमुच्छिम-मणुस्साण य।” स्था. 3/101 । अर्थात् अनिवृत्त जलादि के ग्रहण में हिंसा की सम्भावना होने से वह साधु के लिए अग्राह्य है।
31. आउरस्सरणाणि (आतुर स्मरण)-रोगादि से पीड़ित होने पर पूर्वभुक्त वस्तुओं का स्मरण करना । टीकाकार नेमीचन्द्र ने रोगातुर होने पर माता-पिता आदि की स्मृति करना, ऐसा इसका अर्थ किया है। परिचितों के स्मरण से मानसिक चंचलता और आर्तध्यान बढ़ने की सम्भावना रहती है। दूसरे अर्थ में आतुर-कष्टी को शरण देना कहा है। साधु के लिये आतुर स्मरण अनाचीर्ण है।
32-33. मूलए-सिंगबेरे-व्यवहार में बहु प्रचलित मूलक मूली मूला और शृङ्गबेर-अदरख यदि शस्त्र परिणत नहीं हो तो उसका लेना साधु के लिए आचार विरुद्ध है।
34. उच्छुखण्डे (सचित्त इक्षुखण्ड)-जिसके दोनों पोर विद्यमान हों, वह इक्षु खण्ड सचित्त रहता है। ऐसे इक्षु खण्ड अनिवृत्त लेना अनाचार है। जिसमें नमक आदि शस्त्र का प्रयोग हुआ हो फिर भी जो जीव रहित नहीं हुआ हो, उसे अनिवृत्त कहा गया है। ऐसे इक्षु खण्ड का लेना साधु के लिए अकल्प्य है।
35-36. कन्दे, मूले-सचित्त कन्द और मूल का लेना भी साधु के लिए अग्राह्य है। यहाँ सचित्त का अर्थ सजीव समझना चाहिए। शकरकन्द आदि भूमि में उत्पन्न होने वाले और मूल से तात्पर्य-सामान्य जड़ समझना चाहिए। साधु सचित्त भोजन का त्यागी है। उसके लिए किसी भी सचित्त वस्तु का सेवन कल्प विरुद्ध है।
37-38 फले बीए य आमए-(कच्चे फल और बीज) आम, जामुन आदि फल और गेहूँ, मूंग, मोठ, तिल, आदि बीज कच्चे हों तो उनको लेना अनाचार है। मूल से बीज तक के पदार्थों का ग्रहण हिंसाजनक है। इनको ग्रहण करने से वनस्पति के अतिरिक्त तदाश्रित त्रस जीवों की भी हिंसा सम्भव है। विशेषकर इक्षुखण्ड में खाने का भाग अल्प और गिराने का अधिक होता है। इसलिये उसको अग्राह्य कहा है।
39-44. सोवच्चले आदि-1. सोवर्चल लवण, 2. सैन्धव लवण, 3. रोमा लवण, 4. समुद्री लवण, 5. पांशुक्षार और 6. काला लवण, ये छ: प्रकार के सचित्त लवण साधु के लिये अग्राह्य बतलाये गये हैं।
सोवर्चल और सैन्धव लवण खान से उत्पन्न होते हैं। ये अग्नि आदि से पकाये गये नहीं होते। अत: वैसे कच्चे लवण का ग्रहण निषिद्ध कहा है। कारण, इसमें जीव-हिंसा होना सम्भव है।
45. धूवणेत्ति-शरीर और वस्त्रादि को आरोग्य के लिए धूप देना अथवा धूम्रपान करना साधु के लिए अनाचार है।