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तृतीय अध्ययन
[21 मन, वचन, कायरूप तीन गुप्ति वाले। छसु = षट्काय के जीवों पर । संजया = दया करने वाले। पंचनिग्गहणा = पाँच इन्द्रियों को वश में करने वाले । धीरा = धीर । निग्गंथा = निर्ग्रन्थ । उज्जुदंसिणो = सरल स्वभाव वाले होते हैं।
भावार्थ-पाँच आस्रवों के त्यागी, तीन गुप्तियों से गुप्त, षट्काय जीवों की यतना करने वाले, पाँच इन्द्रियों को वश में रखने वाले धीर-निर्ग्रन्थ ऋजुदर्शी होते हैं।
बिना किसी महिमा पूजा और लोकैषणा के निश्छल भाव से साधना करना ही निर्ग्रन्थों का मुख्य दृष्टिकोण होता है।
आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा ।
वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया ।।12।। हिन्दी पद्यानुवाद
लेते आतापन गर्मी में, सर्दी में खुले बदन रहते ।
संयत और समाहित मुनि, वर्षा में सस्थिर हो रहते ।। अन्वयार्थ-गिम्हेसु = ग्रीष्मकाल में। आयावयंति = सूर्य की आतापना लेते हैं। हेमंतेसु = शीतकाल में । अवाउडा = शरीर से वस्त्र हटा देते हैं। वासासु = वर्षाकाल में । पडिसंलीणा = इन्द्रियों को वश में रखने वाले । संजया = संयमी साधु । सुसमाहिया = उत्तम समाधि वाले होते हैं।
भावार्थ-मुनि उष्णकाल में ताप सहते हैं, शीतकाल में खुले बदन शीत सहन करते हैं और वर्षा ऋतु में कायिक चेष्टाओं का संगोपन कर समाधि भाव में लीन रहते हैं।
परीसह-रिऊदंता, धूअमोहा जिइंदिया।
सव्व दुक्खप्पहीणट्ठा, पक्कमंति महेसिणो ।।13।। हिन्दी पद्यानुवाद
परीषह शत्रु का दमन करे, निर्मोह सदा इन्द्रिय विजयी।
सब दुःखों का क्षीण करन, उद्यत रहते परमर्षि जयी।। अन्वयार्थ-परीसह-रिऊदंता = परीषह रूपी शत्रुओं का दमन करने वाले । धूअमोहा (धूयमोहा) = मोह को अलग हटाने वाले । जिइंदिया = जितेन्द्रिय । महेसिणो = महर्षि । सव्वदुक्खप्पहीणट्ठा = सब दु:खों का नाश करने के लिये । पक्कमंति = पराक्रम करते हैं, संयम साधना में जोर लगाते हैं।
भावार्थ-निर्ग्रन्थों की महिमा इसलिए है कि वे क्षुधा, पिपासादि परीषहों को सहन करने वाले, मोहरहित और जितेन्द्रिय होते हैं। ऐसे महर्षि दु:ख-मुक्ति के लिए आत्म-साधना में अपनी शक्ति लगाते हैं।