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अपभ्रंश-साहित्य
अनुसार समाज में भी अनेक परिवर्तन हो गये। समाज की एकता भी इसी कारण नष्ट हो गई । इन सब भिन्न-भिन्न मतों और विचारधाराओं में एक ही समानता थी-सब में एकान्तसाधना की प्रधानता थी। इस विचारधारा ने भारतीय समाज को, जो कि विचार-भेद से पहले ही शिथिल और निर्बल हो गया था और भी निर्बल कर दिया।
प्राचीन वैदिक-धर्म में धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहा। परमात्मा के भिन्न-भिन्न नामों को देवता मानकर उनकी पृथक्-पृथक् उपासना प्रारम्भ हो गई थी। ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों और देवताओं की पत्नियों की भी पूजा होने लगी । ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, बाराही, नारसिंही और ऐंद्री-इन सात शक्तियों को मातृका का नाम दिया गया है। काली, कराली, चामुंडा और चंडी नामक भयंकर और रुद्र शक्तियों की भी कल्पना की गई। आनंद-भैरवी, त्रिपुर-सुन्दरी और ललिता आदि विषयविलास-परक शक्तियों की भी कल्पना की गई । इनके उपासक शाक्त, शिव और त्रिपुर-सुन्दरी के योग से ही संसार की उत्पत्ति मानते थे।
क्रमशः वैदिक ज्ञान के मंद पड़ जाने पर पुराणों का प्रचार हुआ। पौराणिक संस्कारों का प्रचलन चल पड़ा। पौराणिक देवताओं की पूजा बढ़ गई । यज्ञ कम हो गये-श्राद्ध-तर्पण बढ़ गया। मंदिरों और मठों का निर्माण बढ़ता गया। व्रतों, प्रायश्चितों का विधान स्मृतियों में होने लगा।
बौद्ध और जैन, वैदिकधर्म के प्रधान अंग ईश्वर और वेद को न मानते थे। जनता की आस्था इन दोनों पर से उठने लगी। कुमारिल भट्ट ने ७ वीं शताब्दी के अन्त में पुन: वैदिकधर्म की प्रतिष्ठा बढ़ाने का प्रयत्न किया। यज्ञों का समर्थन और बौद्धों के वैराग्य-संन्यास का विरोध किया।
शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में बौद्धों और जैनों के नास्तिकवाद को दूर करने का प्रयत्न किया किन्तु अपना आधार ज्ञान कांड और अहिंसा को रखा । संन्यास मार्ग को भी प्रधानता दी । उनका सिद्धान्त जनता को अधिक आकृष्ट कर सका।
ब्राह्मण, बौद्ध और जैन इनकी अवान्तर शाखायें भी हो गई थीं। इन में यद्यपि कभी-कभी संघर्ष भी हो जाते थे तथापि धार्मिक असहिष्णुता का भाव नहीं था। ब्राह्मण-धर्म की विभिन्न शाखाओं में परस्पर भिन्नता होते हुए भी उनमें एकता थी। पंचायतन पूजा इसी एकता का परिणाम था। प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी देवता की पूजा कर सकता था। सभी देवता ईश्वर की भिन्न-भिन्न शक्तियों के प्रतिनिधि थे। कन्नौज के प्रतिहार राजाओं में यदि एक वैष्णव था, तो दूसरा परम शव, तीसरा भगवती का उपासक, चौथा परम आदित्य भक्त । जैनाचार्यों ने माता-पिता के विभिन्न धर्मावलम्बी होने पर भी उनके आदर-सत्कार प्रा स्पष्ट उपदेश दिया है।
तेरहवीं शताब्दी से पूर्व देवी-देवताओं की मूर्तियां प्रायः भिन्न-भिन्न भावों के
१. गौरीशंकर हीराचंद ओझा-मध्यकालीन भारतीय संस्कृति, हिन्दुस्तानी एकेडमी प्रयाग, सन् १९२८, पृ० २७ ।
२. वही पृ० ३७।