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अपभ्रंश-महाकाव्य
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खंड, वस्तुबंध, हेला आदि छन्दों का भी प्रयोग किया गया है । सन्धियों के प्रारम्भ में दिउठा की मंगलकामना के लिये शार्दूलविक्रीडित, वसन्त तिलका, अनुष्टुप् गाथा आदि छन्दों का भी प्रयोग मिलता है ।
हरिवंश पुराण
इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भंडार में विद्यमान है। श्रुतकीर्ति ने प्राचीन कथा का ही इसमें वर्णन किया है । कवि की एक दूसरी कृति परमेष्ठि प्रकाश सार भी हस्तलिखित रूप में उपलब्ध है । इसका समय कृतिकार ने वि. सं. १५५३ दिया है ।
१५
५३
दह पण सय तेवण गय वासई पुण
विक्कम णिव सर्वच्छरहे ।
तह सावण मासहु गुर पंचमि सहूं, गं पुण्ण तय सहसतहें ॥
७.७४
अतः कवि का समय वि. सं. की १६ वीं शताब्दी का मध्य भाग माना जा सकता है । कवि ने ४४ संधियों में महाभारत की कथा का वर्णन किया है। पिकाओं में कवि ने इस ग्रंथ को महाकाव्य कहा है । '
संधि की
ग्रंथ का आरम्भ निम्नलिखित पद्य से होता है ।
ॐ जय नम सिद्धेभ्यः ।
सिसिइणवोमं स तं हरि वंसई । पाव तिमिरहर विमल यरि । गुण गण जस भूतिय, तुरय अदूसिय, सुव्वय गेमिय हलिय हरि ॥
गाथा-
सुरवइ तिरोडरयणं, किरणंव पवाहसित्त जह चलणं । पण विवि तह परम जिणं, हरिवंस कयत्तणं वृधे ॥ हरिवंश पुराण का कवि ने कमल रूप में वर्णन किया है हरिवंसु पयोरुह अतरवण्णु, इह भरह खित्त सरवरउ वण्णु ।
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१०.१
आत्म विनय और सरस्वती वन्दन से कथा आरम्भ होती है। मंगलाचरण के द्वारा ग्रंथ की समाप्ति होती है ।
जिन अपभ्रंश महाकाव्यों का विवेचन यहाँ प्रस्तुत किया गया है । निस्संदेह उनके अतिरिक्त अनेक महाकाव्य जैन भंडारों में गुप्त पड़े होंगे । अनेक प्रकाश में आ चुके हैं। किन्तु अभी तक प्रकाशित नहीं हो सके । मुख्य रूप से महाकाव्यों के आधार पर
१. इय हरिवंशपुराणे मगहरसरायपुरिसगुणालंकार कल्लाणे तिहुवणकित्तिसिस्स असुद्द कत्ति महाकव्त्रु विरयंतो णाम पढमो संद्धी परिछेक सम्मातो ।