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अपभ्रंश- साहित्य
अर्थात् राजा गणेश्वर के मारे जाने पर रण में कोलाहल मच गया, पृथ्वी में हाहा - कार मच गया । देवराज इन्द्र के पुर की नागरिक रमणियों के नयन प्रस्फुरित और कम्पित हो उठे । ठाकुर ठग हो गये, चोरों ने घर घेर लिये, नौकरों ने स्वामियों को पकड़ लिया, धर्म नष्ट हो गया, लोगों के धंधे डूब गये, दुष्ट सज्जन का तिरस्कार करने लगे, कोई विचार करने वाला नहीं रहा, जाति-अजाति-विवाह एवं अघम उत्तम का विचार जाता रहा । कोई अक्षर - रस ज्ञाता नहीं रहा, कवि कुल घूम घूम कर भिखारी के समान हो गया और तिरहुत के सब गुण तिरोहित हो गये ।
वीरसिंह और कीर्तिसिंह राज्य छोड़कर जौनपुर के सुल्तान से सहायता लेने के लिए निकल पड़े। दो-तीन पंक्तियों में ही कवि ने उनकी करुण दशा का चित्र अंकित कर दिया है-
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णं वलभद्दह कण्ण ण उण बन्निअउँ राम लक्खन । राजह नन्दन पात्र चलु अइस विधाता तां पेक्खन्ते कमण काँ नअण न लग्गइ
( की० ल० पृ० २२)
क्या वे दोनों बलराम और कृष्ण थे या राम और लक्ष्मण ? दोनों राजकुमार पांव पांव चले, विधाता कैसा मूढ़ ! उनको देखकर किस की आँखों में जल नहीं भर आया ? नपुर का वर्णन ( वही पृष्ठ २६ - ३२ ) और वहाँ की वेश्याओं का वर्णन ( वही पृष्ठ ३४-३८) स्वाभाविक एवं आकर्षक है । वहाँ के बाजारों और उन में व्यापार करने वाले तुर्की मुसलमानों के रहन-सहन और व्यवहार का वर्णन करता हुआ कवि कहता है
सराफे सराहे भरे बेवि वाजू,
तौलन्ति हेरा लसूला पेआजू ॥ खरीदे षरीदे वहूता गुलामो,
तुरुक्कें तुरुवकें अनेको सलामो ॥
बसाहन्ति षीसा मइज्जल, मोजा,
भोर ।
नोर ॥
भमे मीर वल्लीअ सइल्लार षोजा ॥
अबे वे भगन्ता सराबा पिबन्ता,
कलीमा कहन्ता कलामे जीअन्ता । कसोदा कटन्ता मसोदा भरन्ता,
किवा पढन्ता तुरुक्का अनन्ता ॥ ( की० ल० पृष्ठ ३८-४० ) अर्थात् दोनों ओर सुन्दर सराफे की दुकानें थीं। दुकानदार लहसन और प्याज तोल रहे थे । बहुत से गुलाम खरीद रहे थे । मुसलमान - मुसलमान में दुआ सलाम हो रही थी । बटुए, पाजेव और मौजें खरीदे जा रहे थे । मोर, वली, सालार और खोजे घूमते फिर रहे थे । अनन्त तुर्क थे । कोई अबे बे कहते थे, कोई शराब पीते थे, कोई करीमा कहते थे, कोई कलमा पढ़ रहे थे, कोई कसीदा काढ़ रहे थे अर्थात् प्रशस्तियाँ लिख रहे थे, कोई