Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 421
________________ अपभ्रंश-साहित्य का हन्दी-साहित्य प्रभाव ४०३ अपभ्रंश कवियों ने नवीन छन्दों की सृष्टि के समान कुछ नवीन अलंकारों की भी सृष्टि की, इसका पीछे निर्देश किया जा चुका है। इसमें कवि दो दृश्यों या घटनाओं की समता का प्रदर्शन करता है । इसके उदाहरण पुष्पदन्त के महापुराण में अनेक मिलते हैं। इस प्रकार के अलंकार का नाम ध्वनित-रूपक रखा जा सकता है । इसके उदाहरण रासो ग्रन्थों में भी मिलते हैं। परमाल रासो का रचयिता वीर और शृङ्गार का साथ-साथ वर्णन करता हुआ "सूर" तथा "परी" की समानता का चित्र उपस्थित करता है इते टोप टंकार सिरकस उतंग। उतै अप्छरी कंचुकी कस्सि अंगं ॥ इत सूर मोजा बनावंत भाए। उतै अपसरा नुपुरं पहिर पाए ॥ उतै सूरमा पाग पर झिलम डार। उतै झुंड रंभं सु माँगै समारै ॥ कही कवि चन्द निरष्षी सुसोऊ। बरन्नै समानं परी सूर दोऊ ॥२ हिन्दी के वीर काव्यों में इसी प्रकार के अन्य उदाहरण भी मिल सकते हैं। अपभ्रंश में लोकोक्तियों और वाग्धाराओं की प्रचुरता है। हिन्दी तथा उर्दू ने वाग्धाराओं तथा लाकोक्तियों का प्रयोग अपभ्रंश-स हित्य से प्राप्त किया है। अपभ्रंश-साहित्य का हिन्दी-साहित्य पर जो प्रभाव पड़ा उसमें छन्दों का विशेष महत्त्व है। संस्कृत में वर्णवृत्तों का अधिकतर प्रयोग होता था । प्राकृत में वर्णवृत्तों के बन्धन को हटा कर मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया। प्राकृत का "गाथा" छन्द मात्रिक छन्द ही है । अपभ्रंश कवियों ने भी उस प्रवृत्ति को बनाये रखा। इन्होंने भी मात्रिक छन्दों का बहुलता से प्रयोग किया। अपभ्रंश की यह प्रवृत्ति हिन्दी-साहित्य में भी आई। हिन्दी-साहित्य में भी वर्णवृत्त उस सुन्दरता ने न ढल सके जिस सुन्दरता से मात्रिक छन्द । पं० अयोध्यासिंह उपाध्याय ने अपने प्रिय प्रवास में वर्णवृत्तों का प्रयोग किया है। अन्यत्र काव्यों में इनका प्रयोग बहुत कम है। ___ अपभ्रंश छन्दों की दूसरी विशेषता है कि इन में अन्त्यानुप्रास का प्रयोग मिलता है। इस प्रवृत्ति का संस्कृत में भी प्रायः अभाव था और प्राकृत में भी। यह अपभ्रंश कवियों की अपनी सूझ थी। हिन्दी छन्दों में यह प्रवृत्ति अपभ्रंश छन्दों से ही आई। ___ अपभ्रंश कवियों ने जहां प्राचीन वर्णवृतों का प्रयोग किया वहां भी उनमें एक नवीनता उत्पन्न कर दी। उदाहरण के लिए निम्नलिखित मालिनी छन्द देखिये-- खलयण सिरसूलं, सज्जणाणंद मूलं । पसरइ अविरोलं, मागहाणं सुरोलं । सिरि णविय जिणिदो, देइ वायं वणिदो। वसु य जुइ जुत्तो, मालिणी छंदु वुत्तो ॥ सुदं०च०३.४. संस्कृत के पिंगल शास्त्र के नियमों के अनुसार जहां यति होनी चाहिये वहां पर भी १. देखिये पीछे छठा अध्याय, पृ० ९१ और ११५। २. उद्धरण निर्देश के लिये लेखक डा० ओमप्रकाश का कृतज्ञ है।

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