Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 424
________________ अपभ्रंश-साहित्य हिन्दी-साहित्य में वीरगाथा काल की छप्पय-पद्धति का छप्पय भी अपभ्रंश में प्रयुक्त हुआ है । छप्पय अपभ्रंश का संकीर्णवृत्त है । छप्पय का प्रयोग १० वीं शताब्दी से पूर्व नहीं हुआ। स्वयंभू छन्द में इसका लक्षण मिलता है।' कुमारपाल प्रतिबोधान्तर्गत अपभ्रंश पद्यों में इसका प्रयोग पाया जाता है। गंदेश रासक में छन्दों की विविधता मिलती है । छन्दों के आधिक्य से ऐसा प्रतीत होता है कि छन्दों के उदाहरण स्वरूप इस की रचना की गई। सुदंसण चरिउ, सुलोचना चरिउ और जिणदत्त चरिउ की छन्द विविधता का पीछे निर्देश किया जा चुका है । हिन्दी के वीर काव्यों में भी इस छन्द-बहुलता के दर्शन होते हैं। ___अपभ्रंश कवियों ने जिन मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया है उनमें उन्होंने स्वतंत्रता का परिचय दिया है । चतुष्पदी छन्दों का कहीं द्विपदी के समान, कहीं अष्टपदी के समान, स्वेच्छा के प्रयोग किया है । किसी बंधन को इन्होंने स्वीकार नहीं किया। अपभ्रंश कवियों के पादाकुलक, पज्झटिका, हरिगीत, भुजंगप्रयात, ताटक, छप्पय, रोला, दोहा, सोरठा आदि अनेक मात्रिक छन्दों का प्रयोग हिन्दी के संत और भक्त कवियों ने इन्हीं नामों से या कुछ परिवर्तित नामों से किया है। अपभ्रंश के छन्दों के प्रभाव के अतिरिक्त छन्दों में आलाप के लिए किसी अक्षर के प्रयोग की शैली भी अपभ्रंश के अनेक छन्दों में मिलती है । जयदेव मुनि के भावना संधिप्रकरण के कुछ पद्यों में इसका आभास मिलता है । वहां ए का प्रयोग इसी उद्देश्य से किया गया है । कुछ रासा ग्रन्थों में तु का प्रयोग भी इसी ओर संकेत करता है। ___ इसके अतिरिक्त हिन्दी कविता में "कह गिरिधर कविराय" "कहै कबीर" आदि कवि के नाम प्रयोग की प्रणाली भी अपभ्रंश से ही आई । सिद्धों के गीतों में उनके नाम का निर्देश मिलता है। सुप्रभाचार्य ने अपने वैराग्य सार में अनेक पद्यों में अपने नाम का प्रयोग किया है । स्थान स्थान पर "सुप्पउ भणइ" प्रयोग मिलता है। ___ अपभ्रंश के हिन्दी पर प्रभाव के परिणाम स्वरूप अनेक अपभ्रंश और हिन्दी के कवियों में शब्द साम्य दिखाई देता है । कुछ उदाहरण देखिये -- (i) मुंडिय मुंडिय मुंडिया सिर मंडिउ चित्तु ण मंडिया। चित्तहं मुंडणु जि कियउ संसारहं खंडणु ति कियउ॥ (पाहुड दोहा) केसन कहा बिगारिया जो मुंडो सौ बार । मन को क्यों नहीं मुंडिये जामे विष विकार ॥ (कबीर) १. श्री विपिन विहारी त्रिवेदी, विशाल भारत, अक्तू० १९५०। २. देखिये पीछ चौदहवां अध्याय पृ० ३६४ । ३. देखिये पीछे नवा अध्याय, पृ० २९३ । ४. देखिये पीछे चौदहवाँ अध्याय पृ० ३६४ । ५. देखिये पीछे नवां अध्याय ५० २७६-२८२ ।

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