Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 423
________________ अपभ्रंश-साहित्य का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव का उल्लेख स्वर्गीय शुक्ल जी ने अपने हिन्दी-साहित्य के इतिहास में किया है', वे सब अपभ्रंश से प्रभावित हुई हुई प्रतीत होती हैं। हिन्दी-साहित्य की काव्य पद्धतियों में एक दोहा पद्धति भी दिखाई देती है । अपभ्रंश मुक्तक साहित्य में जैनियों और बौद्ध सिद्धों, दोनों ने अपनी आध्यात्मिक और उपदेशात्मक रचनाओं के लिये दोहा छन्द का प्रयोग किया था, जो दूहा नाम से प्रसिद्ध है। यह दोहा या दूहा अपभ्रंश का प्रिय छन्द रहा है । १३ और ११ मात्राओं की विषम और सम चरणों की दो पंक्तियों का दोहा छन्द होता है । कुछ छन्द शास्त्रियों ने यह क्रम १४ और १२ मात्राओं का बताया है। मुक्तक रचनाओं के अतिरिक्त संदेश रासक, सुलोचना चरिउ, बाहुबलि चरिउ और कीर्तिलता जैसे खण्डकाव्यों में भी दोहा छन्द का बीच बीच में प्रयोग मिलता है । अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों में से यशः कीत्ति के पांडव पुराण में भी इस छन्द का प्रयोग दिखाई देता है। हिन्दी साहित्य में अपभ्रंश-मुक्तक साहित्य की आध्यात्मिक और उपदेशात्मक धाराओं के प्रभाव स्वरूप हिन्दी-साहित्य के कबीरादि सन्त कवियों ने दोहा छन्द को अपनाया । उनकी नैतिक और पदेशात्मक प्रवृत्ति के अनुकूल तुलसी, रहीम आदि न भी दोहों को अपनाया। अपभ्रंश के शृङ्गार परक दोहों का प्रभाव विहारी पर पड़ा और उसने अपने शृङ्गारिक भावों को अभिव्यक्त करने के लिये दोहा छन्द का ही आश्रय लिया। दूसरी काव्य पद्धति दोहा-चौपाई की है। इसका प्रयोग जायसी और तुलसी ने अपने प्रबन्ध काव्यों में किया। यह अपभ्रंश के चरित ग्रन्थों की कडवक शैली के अनुकरण पर हिन्दी में प्रचलित हुई । इसमें कडवक की समाप्ति पर घत्ता के स्थान पर दोहा का प्रयोग किया गया है । इन प्रबन्धकारों ने अपने काव्यों में कहीं कहीं दोहा के समान सोरठा का भी प्रयोग किया है। सोरठा का अपभ्रश में भी प्रयोग हुआ है ।२ अपभ्रंश के कडवक बद्ध शैली में रचित इन चरित ग्रन्थों में छन्दों की विविधता प्रायः नहीं मिलती। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्य में लिखे चरित काव्यों में भी इस विविधता का अभाव सा ही है । सूदन का सुजान चरित इस का अपवाद है। विद्यापति और सूर की गीत-पद्धति का आदि स्रोत सिद्धों के चर्या गीतों में देखा जा सकता है। १. पं० रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, इंडियन प्रेस प्रयाग, वि० सं० १९९७, पृ० १६२-१६५ २. प्रबन्ध चिन्तामणि पृ० ५८ पर को जाणइ तुह नाह चीतु तुहालउं चक्कवइ । लहु लंकइ लेवाह मग्गु निहालइ करणउत्तु ॥ घाई धौअइ पाय जेसल जलनिहि ताहिला । तइं जीता सवि राय एकु विभिषणु मिल्हि महु ॥ इसी प्रकार योगीन्द्र के परमात्म प्रकाश में भी सोरठा मिलता है।

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