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अपभ्रंश-साहित्य
कोशा पूरी सजधज के साथ स्थूलिभद्र के पास पहुँची। उसे विश्वास था कि उसकी रूप-राशि स्यूलिभद्र के चित्त को विचलित कर देगी किन्तु उसे स्थिर और शान्त देखकर कोशा को निराशा हुई । वह खिन्न होकर बोली--
__'बारह बरिसहं तणउ नेहु किहि कारण छंडिउ' अर्थात् बारह वर्ष तक किया हुआ प्रेज तुमने किस कारण छोड़ दिया ? स्थूलिभद्र ने उसी धीरता के साथ उत्तर दिया--
वेस अइ खेदु न कीजह।
लोहहि घडियउ हियउ मज्झ तुह वयणि न भीजइ ॥" हे कोशा ! खेद न करो। मेरा लोह-घटित हृदय तुम्हारे वचनों से नहीं भीग सकता। कामोन्मत्त और उद्विग्न कोशा को समझाता हुआ स्थूलिभद्र बोला
चितामणि परिहरवि कवण पत्थरु गिणेइ ? तिम संजम सिरि परिनएवि वहुधम्म समुज्वल
आलिंगइ तुह कोस कवन पर संत महावल ? __ अर्थात चिंतामणि को छोड़कर पत्थर कौन ग्रहण करेगा ? उसी प्रकार हे कोशा ! धर्म समुज्ज्वल संयम-श्री से प्रेम संबंध करके कौन ऐसा है जो तुम्हारा आलिंगन करेगा? __इस प्रकार कोशा का समग्र विभ्रम-विलास, हाव-भाव, रूप-वैभव, रंगभवन की अपरिमित साज-सज्जा और भोज्य पदार्थों का अनुपम आस्वाद स्थूलिभद्र को तनिक भी विचलित न कर सका। चार महीनों में उसका हृदय एक बार भी प्रकंपित न हुआ, एक पल के लिये भी काम उसे न छू सका। स्थूलिभद्र के इस हिमाचल सदृश अडिग चरित्र से कोशा का गर्व भंग हुआ और उसके ज्ञान-नेत्र खुल गये।
नेमिनाथ चतुष्पादिका' यह रत्नसिंह सूरि के शिष्य विनयचन्द्र सूरि द्वारा रचित चालीस पद्यों की एक छोटी सी रचना है।
इसमें बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ की प्राचीन कथा का ही उल्लेख है । नेमिनाथ प्रसंग में ही राजमती और उसकी सखियों के प्रश्नोत्तर रूप से कवि ने शृगार और वैराग्य का प्रतिपादन किया है । राजमती या राजुल का विवाह नेमिनाथ से निश्चित हुआ था किन्तु वह पशुओं पर दयार्द्र हो वधू-गृह के तोरण द्वार से ही लौट गये और गिरिनार पर्वत पर जाकर तपस्या करने लगे। राजुल के वियोग का ही वर्णन वारह
१. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह, पृ० ८-१०।