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एक तुलनात्मक विवेचन
३८३ दिखाई देता। इसके विपरीत विषय का विस्तार अधिक है किन्तु कवित्व का परिमाण अपेक्षाकृत स्वल्प है।
संस्कृत महाकाव्यों में सर्गबद्ध रचना होती थी। महाकाव्य के लक्षणकारों ने “सर्ग बन्धो महाकाव्यं" कह कर महाकाव्य में कथा का अनेक सर्गों में विभाजन आवश्यक माना है। इतना ही नहीं कि कथा सर्गबद्ध होनी चाहिये उन्होंने सर्गों की संख्या की ओर भी निर्देश किया है। प्राकृत महाकाव्यों में कथा अनेक आश्वासों में विभक्त होती है। सर्ग शब्द के स्थान पर प्राकृतकवियों ने आश्वास शब्द का प्रयोग किया और इस प्रकार कथा के अनेक विभाग किये। किन्तु प्राकृत में ऐसे भी महाकाव्य हैं जिनमें सारी की सारी कथा पद्यों में निरन्तर आगे बढ़ती जाती है और वह आश्वासों में विभक्त नहीं की गई। 'गौडवहीं' म भिन्न-भिन्न विषयों और घटनाओं को कुलकों और महाकुलकों में बांधा गया है । इस प्रकार सर्गों या आश्वासों की परंपरा की इतिश्री प्राकृत महाकाव्य में हो गई। प्राकृत की इस स्वच्छन्द प्रवृत्ति का प्रभाव संस्कृत महाकाव्यों पर भी पड़ा। देवप्रभ सूरि ने 'पाण्डव-चरित' १८ सर्गों में रचा । यद्यपि रचना सर्ग बद्ध है तथापि प्रत्येक सर्ग में अनुष्टुप् छन्द का ही प्रयोग किया गया है।
- अपभ्रंश महाकाव्यों में कथावस्तु अनेक सन्धियों में विभक्त होती है और प्रत्येक सन्धि अनेक कड़वकों से मिलकर बनती है। सन्धियों की संख्या का कोई नियम नहीं। पुष्पदन्त के 'महापुराण' में १०२ सन्धियाँ है और धवल के 'हरिवंश पुराण' में १२२ सन्धियाँ हैं।
संस्कृत-महाकाव्य में नायक कोई देवता या मानव होता था और ऐसा मानव, . धीरोदात्तयुक्त और सत्कुलीन क्षत्रिय होता था। इसमें किसी एक नायक के या एक ही वंश में उत्पन्न अनेक नायकों के चरित्र का वर्णन होता था। जैन कवियों ने संस्कृत में जो महाकाव्य लिखे उनमें कोई एक तीर्थकर या अनेक जैन धर्मावलम्बी महापुरुष भी नायक हुए । वाग्भट का 'नेमि निर्वाण' और हेमचन्द्र का 'त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित' इसके क्रमशः उदाहरण हैं । प्राकृत महाकाव्यों में भी नायक की यह परंपरा चलती रही।
अपभ्रंश में जैन-कवियों ने अपने संस्कृत-महाकाव्यों के ढंग पर ऐसे महाकाव्य लिखे जिनमें किसी तीर्थकर को या अनेक जैन धर्मावलम्बी महापुरुषों को नायक बनाया। संस्कृत की परंपरा से भिन्न एक लौकिक पुरुष भी अपभ्रंश महाकाव्य में नायक बनने लगा, यद्यपि उसके चरित्र का उत्कर्ष कवि ने किसी व्रत के माहात्म्य या जिन भक्ति के कारण प्रदर्शित किया है । धनपाल रचित 'भविसयत्त कहा' का नायक एक श्रेष्ठी पुत्र था । नायक और नायिका के विषय में जो नियम-विधान और ढाँचा संस्कृत में बताया गया, उसकी अपभ्रंश काव्यों में प्रायः अवहेलना पाई जाती है।
कथा का आरम्भ संस्कृत में जिस शैली से किया गया वही शैली हमें प्राकृत काव्यों
१. साहित्य दर्पण, निर्णय सागर प्रेस प्रकाशन, तृतीय संस्करण, सन् १९२५ ई०,
६.३१५।