Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 416
________________ अपभ्रंश-साहित्य उसमें से सम्पूर्ण सुखरूपी रत्न निकाल दिया। पेम अमिअ मंदर विरहु भरतु पयोधि गंभीर । मथि प्रगटेउ सुर-साधु-हित कृपासिंधु रघुवीर ॥ रामचरित मानस २.२३८ ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर माहिं । कथा सुधा मथि काढहीं भगति मधुरता आहि ॥ (वही ७.१२०) भक्तिकाल की चौथी धारा, कृष्णभक्ति शाखा, के प्रतिनिधि कवि सूरदास हैं। इन्होंने अपने सूर सागर की रचना पदों में की है। इसमें पदबद्ध कृष्णकथा का रूप मिलता है । सूर से पूर्व भी सिद्धों के गानों में पदों का रूप दृष्टिगोचर होता है। उनके पद और गान यद्यपि मुक्तक रूप में उपलब्ध हैं किन्तु इस प्रकार की कोई प्रबन्धात्मक पदरचना अपभ्रंश में भी रही हो तो कोई आश्चर्य नहीं । स्थिति कुछ भी हो किन्तु इतना तो प्रकट ही है कि सूर की यह गीति धारा विद्यापति और जयदेव से आगे बढ़कर सिद्धों के मूल स्रोत तक पहुंचती है और किसी न किसी रूप में उनके स्रोत को स्वीकार करती है। सूर के, प्राचीन अपभ्रंश कवियों से प्रभावित होने की सम्भावना सूर के अनेक पदों से की जा सकती है। पीछे संकेत किया जा चुका है कि सिद्धों की उपमाओं को और अपभ्रंश कवियों के पद्यों को सूर ने धार्मिक रूप देकर अपनी भक्ति का विषय बना लिया।' हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में एक दोहा उद्धृत किया है : "बाह विछोडवि जाहि तुहुं हउं तेइ को दोसु। हिअय-ट्ठिअ जइ नीसरहि जाणउं मुंज स रोसु ॥२ अर्थात् हे मुंज! तुम बांह छुड़ाकर जा रहे हो तुम्हें क्या दोष दूं? यदि मेरे हृदय में से निकल जाओ तो मूंज में जानूंगी कि तुम सरोष हो। इस दोहे की शृङ्गार-भावना को सूर ने भक्ति भावना में ढाल दिया। सूर अपने भगवान् से कहते हैं :-- बांह छोड़ाये जात हो निबल जानि को मोहि । हिरदै ते जब जाहुगे सबल जानूंगो तोहि ॥ सिद्धों ने बार-बार विषयों की ओर जाते मन की उपमा जहाज पर बैठे पक्षी से दी है किन्तु सूर ने उसी उपमा का प्रयोग, गोपियों के बार-बार कृष्ण की ओर जाते मन को लक्ष्य कर किया। सरह का एक दोहा है : विसअ विसुद्धे णउ रमइ, केवल सुण्ण चरेइ । उड्डी वोहिअ काउ जिमु, पलुटिअ तह वि पड़ेइ ॥ १. दे० तीसरा अध्याय, पृ० २४ । २. श्री परशुराम वैद्य द्वारा संपादित प्राकृत व्याकरण, पूना, १९२८ ई० पृ० १७३। ३. दे० दसवां अध्याय पृ० ३०७ ।

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