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अपभ्रंश-साहित्य की भाँति इनमें भी धर्म भावना मिलती है । राम चरित मानस में वैष्णवधर्म के प्रभाव से प्रभावित होकर कवि तुलसी दास, अपने चरित नायक को ईश्वर कोटि तक पहुंचा देते हैं।
अपभ्रंश काव्यों के प्रेमाख्यानफ काव्य हिन्दी-साहित्य में जायसी की पद्मावत के रूप में प्रकट हुए । अपभ्रंश में ये प्रेमाख्यान धार्मिक आवरण से आवृत थे। हिन्दी-साहित्य में इन प्रेमाख्यान के काव्यों में अध्यात्म तत्व का व्यंग्य रूप में समावेश हुआ। इसी तत्व को स्पष्ट करने के लिए जायसी को कहना पड़ा--
तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥ गुरु सुआ जेइ पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा॥ नागमती यह दुनिया धंधा। बांचा सोइ न एहि चित बंधा ॥
राघव दूत, सोइ सैतानू । माया अलादीन सुलतानू ॥' हिन्दी साहित्य इन प्रेमकथाओं के लिए अपभ्रंश साहित्य का ऋणी है। किन्तु इन कथाओं के व्यंग्य विधान अथवा आध्यात्मिक अभिव्यंजना के लिए वह सूफी साहित्य का आभारी और 'मसनवियों से प्रभावित है।
हिन्दी साहित्य में प्रबन्धात्मक-बीर काव्य रासो के रूप में भी मिलते हैं । इन रासो ग्रंथों में प्रतिनिधि काव्य पृथ्वीराज रासो को माना जाता है। किन्तु रासो का आधुनिक रूप चाहे किसी भाषा में हो वह अपने प्रारम्भिक रूप में अपभ्रंश काव्य ही था। इसी के आधार पर आगे अन्य रासो ग्रन्थ लिखे गये । कुछ अन्य रासा ग्रन्थ भी अपभ्रंश में मिलते हैं, उनमें पृथ्वीराज रासो के समान किसी राजा का जीवन अंकित नहीं अपितु उनका विषय धार्मिक है। इस प्रकार के कुछ ग्रन्थों का निर्देश पीछे किया जा चुका है।
इस प्रकार प्रबन्ध-काव्यों की वह परम्परा जो संस्कृत प्राकृत से चलती आ रही थी अपभ्रंश में यद्यपि कुछ शिथिल पड़ गई थी तथापि वह इसके आगे हिन्दी साहित्य में भी प्रवाहित होती रही। इन प्रबन्ध-काव्यों के दो रूप संस्कृत साहित्य में ही हो गये थे--एक में कथानक के विस्तार के साथ-साथ काव्यमय वर्णन और दूसरे में संक्षिप्त कथानक किन्तु काव्यमय वर्णन की प्रचुरता । इस प्रकार का घटना-बाहुल्य और काव्यप्राचुर्य हमें कालिदास के काव्यों में दिखाई देता है किन्तु पीछे से कथातत्व संक्षिप्त हो गया, वर्णन का विस्तार हो गया और ये वर्णन अलंकृत भाषा में प्रस्तुत किये जाने लगे। श्रीहर्ष-कृत नैषध चरित, भारविकृत किरातार्जुनीय आदि इसी श्रेणी के काव्य हैं। ___ अपभ्रंश काव्यों में घटना-बाहुल्य तो चलता रहा किन्तु काव्यत्व कुछ दव सा गया । धार्मिक वातावरण के सीमित क्षेत्र में चलने से कवि की स्वच्छन्दता भी जाती रही।
हिन्दी काव्यों में घटनावैचित्र्य का रूप तो मिलता है किन्तु धर्म का वह आग्रह कवि के आगे नहीं रहा। उसकी गति अबाध रूप से आगे बढ़ती जाती है। राम
१. पं० रामचन्द्र शुक्ल, जायसी ग्रंथावली, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी से प्रकाशित, वि० सं० १९८१, पृ० ३३२ ।