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अपभ्रंश - साहित्य का हिन्दी साहित्य पर प्रभाव
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चरित मानस में कथा का पूर्ण विस्तार है और काव्यमय वर्णनों का भी पूर्णतया संचार है । पद्मावत में भी दोनों प्रकार के तत्व मिलते है । कामायनी में कथावस्तु का वह विस्तार नहीं किन्तु काव्यमय वर्णनों का प्राचुर्य है । कामायनी की कथा भी रूपक तत्व के संमिश्रण से संक्षिप्त नहीं रह जाती ।
अपभ्रंश काव्यों में कवियों ने चरित नायक के चरित्र को उत्कृष्ट कोटि का अंकित करने का प्रयत्न किया है । चरित्र चित्रण के द्वारा कवि चाहता है कि श्रोता या पाठक उसका आवरण करे । चरित नायक के अतिरिक्त अन्य पात्रों के चरित्र चित्रण की ओर कवि का ध्यान उतना न था ।
हिन्दी काव्यों में चरित्र चित्रणकी परिपाटी पर अपभ्रंश काव्यों का प्रभाव पड़ा ऐसी कल्पना असंगत नहीं । संस्कृत काव्यों में रसात्मकता ही प्रधान थी चरित्र चित्रण प्रायः गौण था | हिन्दी काव्यों ने रसात्मकता के साथ-साथ चरित्र चित्रण के तत्व का मिश्रण कर इस दिशा में प्रगति की ।
हिन्दी में अपभ्रंशकालीन गीतों की परम्परा में गीतिकाव्य भी रचे गये । गीतिकाव्य में गेयता होनी चाहिये किन्तु इससे भी अधिक आवश्यक है हृदय के किसी भाव की तीव्र व्यंजना | संस्कृत में जयदेव का गीत गोविन्द उपलब्ध है किन्तु उसे भी ade विद्वानों ने अपभ्रंश की छाया के रूप में माना है । अपभ्रंश में अनेक गीत मिलते भी हैं जिनका पहले निर्देश किया जा चुका है। सिद्धों के गीतों में गेयता और भावतीव्रता दोनों हैं । हृदय के भाव को, भाषा की परवाह न कर, तीव्रता से इन कवियों ने अभिव्यक्त किया है । अपभ्रंश में गीतों के महत्व को श्री गोवर्द्धनाचार्य ने भी अपनी 'आर्या सप्तशती' में मुक्तकण्ठ से स्वीकार किया है ।
ग्रन्थिलतया किमिक्षोः किमपभ्रंशेन भवति गीतस्य । किमनार्जवेन शशिनः कि दारिद्रयेण दयितस्य ॥ २१५ ॥
'किमपभ्रंशेन भवति गीतस्य' में जहाँ अपभ्रंश की उपेक्षा है वहीं उसकी 'गीत' के कारण महिमा भी । इस प्रकार हिन्दी के गीति काव्यों को हम इन अपभ्रंश के गीतों का परिमार्जित रूप कह सकते हैं । इसके विनय के पद संस्कृत के स्तोत्रों की आत्मा को लिये हुए .. राग-रागनियों में बंधे प्रचार में आये किन्तु उनका रूप अपभ्रंश के सांचे में ही ढला । विद्यापति ने अपनी कीर्तिलता में अपभ्रंश (अवहट्ठ) की लोकप्रियता का उल्लेख किया है-
सक्कय वाणी बहुअ न भावड़, पाउअ रस को मम्म न पावइ । देसिल वअना सव जन मिट्ठा, तँ तैसन जम्पत्रो अवहट्ठा ॥
अपभ्रंश के इस मोह के कारण उसकी पदावली पर सिद्धों के अपभ्रंश गीतों का कोई प्रभाव न पड़ा हो कैसे माना जा सकता है ? यही गीत परम्परा आगे तुलसी की गीतावली और सूर के पदों में दिखाई देती है । यद्यपि गीतबद्ध कथात्मक काव्य अपभ्रंश में नहीं मिलता तथापि इसका बीज रूप में आभास सिद्धों के गानों में मिल सकता है ।