Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 409
________________ अपभ्रंश-साहित्य का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव ३९१ में मिलती है। इन रासो ग्रन्थों की दूसरी विशेषता है कि इनमें वीर और शृङ्गार का मिश्रण मिलता है । राजाओं का जीवन भोगप्रिय था और युद्धप्रिय । भोग, कामुकता की कोटि तक पहुँचा हुआ न था। राज्य सुखोपभोग करते हुए आवश्यकता पड़ने पर वीरता से प्राणों का बलिदान, इनका चरम लक्ष्य था। अपभ्रंश काव्यों में शृङ्गार, वीर और शान्त इन तीन रसों का विशेष रूप से वर्णन मिलता है। रासो ग्रन्थों में, अन्ततोगत्वा भोगों का त्याग युद्ध भूमि में होता था, चरित ग्रन्थों में भोगों का त्याग विरक्ति में था। अतएव इन ग्रन्थों में शृङ्गार और वीर रसों का ही राज्य है । शान्त रस की चिन्ता इनके रचयिताओं को नहीं है। रासो ग्रन्थों की एक अन्य विशेषता है, छन्दों की विविधता। यह छन्दों की विविधता हमें संदेश रासक में दृष्टिगत होती है। भिन्न-भिन्न छन्दों का प्रयोग रासा के लिये आवश्यक माना गया था। इनके अतिरिक्त पीछे जिन भी प्रवृतियों का पृथ्वीराज रासो में दिग्दर्शन कराया गया है वे सब अन्य रासो ग्रन्थों में मिलती हैं। उनके यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं। उन प्रवृत्तियों से अपभ्रश के प्रभाव का अनुमान किया जा सकता है। हाँ रासो की एक प्रवृत्ति का वहाँ निर्देश नहीं किया गया था। परमाल रासो के रचयिता ने ध्वन्यात्मक शब्दों के प्रयोग के अतिरिक्त ध्वनि सौन्दर्य को उत्पन्न करने का एक नया ढंग निकाला। वर्णमालानुक्रम से अनेक व्यंजनों की ध्वनि को रखते हुए एक विचित्रनाद सौन्दर्य उत्पन्न किया : कह कह सुवीर कहत । खह खह सु संभु हसंत ॥ गह गह सु गौरिय गंग। यह घह सु घमडि तरंग ॥ टह टह सु बुल्लिय मोर। ठह ठह सुखन मुख सोर ॥ डह डह सु डौरव बज्जि । ढह ढह सु सिव वृष सज्जि ॥८१॥ अपभ्रंश में भी यह प्रवृत्ति 'सिरि सालिभद्द कक्का' आदि कृतियों में मिलती है, जिन में वर्णमालानुक्रम से अक्षरों का छन्दों में प्रयोग किया गया है। आगे चलकर 'अखरावट' में भी यही प्रवृत्ति जायसी ने प्रदर्शित की। वीरगाथा काल के अनन्तर हिन्दी साहित्य में भक्ति काल आता है । भक्ति काल की विभिन्न धाराओं और शाखाओं के प्रतिनिधि कवि हैं : कबीर, जायसी, सूर और तुलसी। कबीर आदि संतों की विचारधारा पर अपभ्रंश कवियों की आध्यात्मिक और उपदेशात्मक प्रवृत्ति का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। कबीर और उसके अनुगामी सन्तों के काव्य की निम्नलिखित विशेषतायें हैं :१. निर्गुण राम की भक्ति, २. रहस्यवाद की भावना, ३. रूपकों का प्रयोग,

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