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सतरहवां अध्याय
अपभ्रंश-साहित्य का हिन्दी-साहित्य पर प्रभाव
पिछले अध्यायों में अपभ्रंश-साहित्य का जो भी विवेचन किया गया है उससे उस साहित्य के रूप का परिज्ञान भली-भाँति हो गया होगा। इस अध्याय में अपभ्रंश-साहित्य ने हिन्दी-साहित्य को किस रूप में प्रभावित किया इस पर संक्षेप से विचार प्रस्तुत किया जायगा । अपभ्रंश-साहित्य का प्रभाव हिन्दी-साहित्य के काव्य रूपों पर, काव्य पद्धतियों पर, काव्य के बाह्य रूप पर तथा हिन्दी-साहित्य के भावपक्ष एवं कलापक्ष पर पड़ा दिखाई देता है।
जैसा कि पहिले निर्देश किया जा चुका है अपभ्रंश-साहित्य और आधुनिक काल की वर्तमान प्रान्तीय आर्यभाषायें चिरकाल तक समानान्तर रूप से चलती रहीं । अतएव उत्तरकालीन अपभ्रंश-साहित्य की रचनायें प्राचीनकालीन प्रान्तीय भाषाओं से और प्राचीनकालीन प्रान्तीय भाषाओं की रचनायें उत्तरकालीन अपभ्रंश की रचनाओं से प्रभावित हुई हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं। इनमें परस्पर भाव भाषा, शैली आदि का आदान प्रदान या पारस्परिक प्रेरणा से प्रभावित होना संभव ही है। इस प्रभाव के दिखाने का अभिप्राय इतना ही है कि भारतीय साहित्य की अविच्छिन्न धारा भारत में चिरकाल से प्रवाहित होती चली आ रही है। इसी धारा का परंपरागत रूप आज हमें हिन्दी-साहित्य में दिखाई देता है । देश और काल के प्रभाव से इस धारा का बाह्य रूप परिवर्तित होता रहा किन्तु उसका आन्तरिक रूप ज्यों का त्यों, अबाध गति से, निरन्तर आगे आगे प्रवाहित होता रहा।
अपभ्रंश-साहित्य का हिन्दी के काव्य-रूपों पर प्रभाव __ अपभ्रंश-साहित्य के प्रबन्धात्मक और मुक्तक काव्यों का पिछले अध्यायों में विवेचन किया जा चुका है। अपभ्रंश के प्रबन्धात्मक महापुराण, पुराण, चरित ग्रन्थ, प्रेमाख्यान, कथा-ग्रन्थ इत्यादि सब धर्म के आवरण से आवृत हैं इसका भी निर्देश किया जा चुका है।
जहां तक काव्य के लिए चरित शब्द के प्रयोग का प्रश्न है हिन्दी-साहित्य में राम चरित मानस, वीरसिंह देव चरित, सुदामा चरित, सुजान चरित, बुद्ध चरित आदि काव्य चरित नाम से प्रसिद्ध हैं । अपभ्रंश के चरिउ ग्रन्थों में किसी जैन धर्मावलम्बी महापुरुष के चरित का वर्णन, अनेक पूर्व जन्म-सम्बन्धी कथाओं और अलौकिक घटनाओं से मिश्रित मिलता है। इसी प्रकार हिन्दी साहित्य में भी कतिपय चरित ग्रन्थों में किसी महापुरुष को लेकर उसका चरित अंकित किया गया है और अपभ्रंश के चरित ग्रंथों