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एक तुलनात्मक विवेचन इन प्रबन्ध काव्यों में अनेक वर्णन ऐसे मिलते हैं जिनका मानव जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। ऐसे अनेक स्थलों की ओर भिन्न भिन्न प्रसंगों पर पिछले अध्यायों में संकेत किया जा चुका है।
संस्कृत-महाकाव्यों में शृङ्गार, वीर और शान्त रस में से कोई एक रस प्रधान रूप से पाया जाता है । अन्य रस गौण रूप से मिलते हैं। संस्कृत के अधिकतर महाकाव्यों में शृङ्गार या वीर रस ही प्रधान रूप से दिखाई देता है। किसी प्रेम कथा में या किसी राजा के शौर्य-पराक्रम के वर्गन में यद्यपि दोनों रसों का वर्णन होता है तथापि प्रधानता विषय के अनुसार एक ही रस की होती है। दूसरा रस प्रथम रस के पोषक रूप में ही प्रयुक्त होता है। प्राकृत-महाकाव्यों में भी इसी प्रकार की परंपरा दिखाई देती है।
अपभ्रंश-महाकायों में, इसके विपरीत, शान्त रस की प्रधानता दिखाई देती है। चाहे कोई प्रेम कथा हो, चाहे किती तोयंकर के जीवन का चित्रण, सर्वत्र शृङ्गार और वीर रस का प्रदर्शन तो हुआ है किन्तु सब पात्र जीवन के उपभोगों को भोग कर अन्त में संसार से विरक्त हो जैन धर्म में दीक्षित हो भिक्षुक का जीवन बिताते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार शृङ्गार और वीर रस का अन्ततोगत्वा शान्त रस में ही पर्यवसान दिखाई देता है।
संस्कृत-महाकाव्यों में सम्पूर्ण नाटक-सन्धियों की योजना का विधान भी आलंकारिकों ने किया है। ये सन्धियां उत्तरोत्तर क्षीण होती गईं और यही कारण है कि अपभ्रंश महाकाव्यों में इन सबका ठीक ठोक मिलना प्रायः असम्भव ही है।
प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन की परिपाटी संस्कृत और प्राकृत काव्यों के समान अपभ्रंश काव्यों में भी आई । प्रकृति मानव जीवन का अभिन्न अंग है । चिरकाल से प्रकृति का मानव जीवन के साथ सम्बन्ध बना चला आ रहा है । यदि कविता जीवन की व्याख्या है नो कवि प्रकृति की उपेक्षा कैसे कर सकता है ?
प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन--ऋतु, प्रभात, सूर्योदय, सन्ध्या, चन्द्रोदय, समुद्र, नदी, पर्वत, सरोवर, वन आदि के वर्णन के रूप में--हमें प्राचीन साहित्य में मिलता है। इन्हीं रूपों में प्रकृति का वर्णन अपभ्रंश-काव्यों में भी पाया जाता है, जैसा कि प्रसंगानुसार काव्यों का परिचय देते हुए अनेक उदाहरणों से स्पष्ट किया जा चुका है। ___ संस्कृत-प्राकृत के समान अपभ्रंश में भी प्रकृति के भिन्न-भिन्न रूपों का वर्णन कवि ने आलंबन रूप में भी किया है। यद्यपि उद्दीपन रूप में भी प्रकृति का अंकन हुआ है तथापि शुद्ध आलंबन रूप में प्रकृति के वर्णनों की भी प्रचुरता है । __ भाषा के विषय में संस्कृत-प्रबन्ध काव्यों में किसी विशेष नियम का उल्लेख नहीं किया जा सकता । कवि की शैली के अनुसार प्रबन्ध काव्य की भाषा भी परिवर्तित होती रही।
_ अपभ्रंश कवियों की भाषा के विषय में कोई विशेषता प्रदर्शित करना संभव नहीं। भाषा कवि की अपनी शैली पर आश्रित होती है। वैयक्तिक शैली के भेद से कवियों की भाषा भी परिवर्तित होती रहती है। अतः सामूहिक रूप से अपभ्रंश काव्यों की भाषा के विषय में कोई निर्णय देना संभव नहीं। फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इन काव्यों की भाषा में दो धारायें स्पष्ट रूप से बहती हुई दिखाई देती हैं। कुछ