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अपभ्रंश-गद्य
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पठितव्यः ॥ १७॥ दुहाव गाइ दुबु गुआलं गोसांवि दोहयति गां दुग्धं गोपालेन स्वामी ॥१८॥ सिंहासन आछ राजा सिंहासने तिष्ठति राजा ॥ १९ ॥ मेहलि सोअ मेहला स्वपिति ॥ २० ॥ छात्र गाउं जाइआ छात्रेण ग्रामे गम्यते ॥ २१॥ कारुप दुग् वस्तु के एते द्वे वस्तुनी ॥ २५ ॥ कौ ताहा जेवत आछ कस्तत्र भुंजान आसीत् ॥ २७॥ काह इहा पढिय का किह केनात्र पठ्यते कस्मै ॥ ३३ ॥ छात्र इहां काइ पढ काका किहका पास काहां ककरें घर छात्रोत्र किं पठति न कस्मै कुतः कुत्र कस्य गृहे ॥३६॥ हल्लअ वथु पाणि तरंत लघुकं वस्तु पानीये प्लवते ॥ ४१ ॥ इत्यादि ।
किस काल का गद्य है कुछ स्थिर नहीं । एक स्थान पर
अतः
ग्रन्थ के समय का कोई उल्लेख नहीं मिलता निश्चय से नहीं कहा जा सकता । भाषा में शब्द रूप 'वस्तु' दूसरे स्थान पर 'वथु' का प्रयोग किया गया है ।
अपभ्रंश-गद्य के उपरिलिखित उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अपभ्रंशगद्य में अपभ्रंश-पद्य की प्रथा विपरीत संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग होता था । इस प्रकार के तत्सम शब्दों का प्रयोग नवीं शताब्दी से ही प्रारम्भ हो गया था और यह उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । तत्सम शब्दों के प्रयोग के अतिरिक्त १४वीं - १५वीं शताब्दी के अपभ्रंश-गद्य में आन्त्यानुप्रासमय ( तुकान्त ) शब्दों के प्रयोग की प्रवृत्ति भी दृष्टिगत होने लग गई थी । अन्त्यानुप्रास की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश-पद्य में प्रचुरता से उपलब्ध होती है और यह अपभ्रंश-पद्य की एक विशेषता मानी गई है । गद्य में इस प्रवृत्ति के दर्शन के कारण उस काल के गद्य को कुछ विद्वानों ने 'पद्यानुकारी गद्य' कहा है ।