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अपभ्रंश स्फुट - साहित्य
का ज्ञान निम्नलिखित उद्धरण से हो सकता है-
जय तिहुयण वर कप्प रुक्ख जय जिण धन्नंतरि । जय तिहुयण कल्लाण कोस दुरियक्खरि केसरि । तिहुयण जण अविलंधि आण भुवणत्तय सामिय । कुणसु सुहाइ जिणेस पास थंभणय पुरि यि ॥
परमेष्ठि प्रकाश सार
श्रुतकीर्ति रचित यह ग्रन्थ अप्रकाशित है । इसकी हस्तलिखित प्रति आमेर शास्त्र भण्डार में वर्तमान है ( प्र० सं० पृष्ट १२०-१२२ ) । कवि ने इस की रचना वि० सं० १५५३ में की थी । इसमें धार्मिकता अधिक है । इस ग्रन्थ के अतिरिक्त कवि ने हरिवंश पुराण की भी रचना की थी जैसा कि पहिले महाकाव्य प्रकरण में निर्देश किया जा चुका है ।
कृति का विषय धर्मोपदेश है । लेखक ने सातों सन्धियों में सृष्टि उत्पत्ति, नाना प्रकार के जीवादि धार्मिक विषयों का ही विवेचन किया है । कृति कडवक और घत्ता बद्ध शैली में लिखी गई है। कृतिकार ने इसे महाकाव्य कहा है किन्तु ग्रन्थ महाकाव्य के लक्षणों से रहित है ।
योग शास्त्र
श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल ने श्रुतकीर्ति द्वारा लिखित इस अप्रकाशित ग्रन्थ का उल्लेख किया है । 3 इसका रचना काल भी वि० सं० १५५३ के आस पास ही अनुमित किया जा सकता है ।
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योग शास्त्र दो सन्धियों का ग्रन्थ है । प्रथम संधि में ६४ और दूसरी संधि में ७२ कडवक हैं । ग्रन्थकार ने इसमें योग धर्म का वर्णन किया है
" सव्वह धन जोउ जगिसारउ जो भव्वयण भवोवहि तारउ"
प्राणायाम आदि योग की क्रियाओं का में लोक का चिन्तन करने के लिए कहा है।
वर्णन करने के पश्चात् कवि ने योगावस्था दूसरी संधि में धर्म का वर्णन किया गया
१. दहपण (१५) सयते वण (५३) गयवासइं
पुण विक्कन णिव संवच्छर हे । तह सावण मासह गुर पंचभि सहं, गंधु पुण्णु तय सहसतहें ॥७.७४ ॥ २. इय परमिट्ठ पयाससारे अरुहादिगुणेह वण्णणाणलंकारे अप्पसुद सुद कित्ति जहासत्ति महाकव्वु विरयंतो पठस्मो परिछेऊ समोत्तो ॥ संधि १ ॥
णाम
३. वीर वाणी वर्ष ६, अंक ३-४ दिसं ० - जन० १९५३ ।