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अपनांश-गद्य
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"सयलं पुहईमंडलं परिभमिऊण संपत्तो महुराउरीए । एत्थ एक्कम्मि अणाहमण्डवे पविट्वो। अवि य तत्थ ताव मिलियालए कोड्ढीए। वलक्ख खइयए। दीण दुग्गय । अन्वलय । पंगुलय। .............कि जबहुणा जो माउ-पिउ-रुडेल्लउ सो सो सयो वि तत्थ मिलिएल्लउ ति। ताहं च तेत्थु मिलिएलय सह समाणह एस्केक्क महा आलावा पयत्ता। भो भो! कयहिं तित्थे दे (वे) वा गयाहं कयरा वाहि पावं वा पिट्टइ ति। एक्केण भणिअं-अमुक्का वाणारसी कोढिएहि। तेण वागारसो गयाणं कोढ़ फिट्टइत्ति।
अण्णेण भणिअं--हुं हुं कहिउ बुतंतउ जंपिएल्लउ। कहिं कोढं। कहिं वाणारसी । मलत्थाणु भडारउ भो (को) ढइं जे देइ । उहालि लोअहं।
अण्णण भणिअं-फाइं इमेण जत्थ चिर परूढ पाउ फिट्टइ, तुब्भे, उद्दिसह तित्थ । अण्णण भणिअं-प्रयागव उपडिअहं घिर परूढ पाय विहत्य वि फिट्टति। अण्णण भणिअं--अरे! पाव पुच्छिय पाय साहहि ?
अण्णण भणिअं--खेदु मेल्लहं। जइ रमाइं। पिइवह कयई पि महापाबइं गंगासंगमे व्हायहं भइखभडारयपडिअहं णासइ ति।"
इस उद्धरण में पहिले उद्धरण की अपेक्षा संस्कृत के तत्सम शब्दों की बहुलता नहीं। ऐसा होना स्वाभाविक ही था। फिर भी प्रयाग, गंगा-संगम, खेद आदि कुछ तत्सम शब्द प्रयुक्त हो ही गये हैं। इस प्रकार नवीं शताब्दी में शिक्षाभ्यासी या सुशिक्षित लोगों की भाषा में ही नहीं, अशिक्षित या अर्ध-शिक्षित लोगों की भाषा में भी तत्सम शब्द प्रयुक्त होने आरम्भ हो गये थे।
'जगत्सुन्दरी प्रयोग माला' नामक एक वैद्यक का ग्रन्थ है । इसका रचना काल १३वीं शताब्दी अनुमान किया गया है। इसमें कहीं कहीं पर गद्य का भी प्रयोग मिलता है । एक उदाहरग देखिये :
"सुल घाटी काठे मंत्र (शाकिन्यधिकारे)
"कुकासु बाढहि उरामे देवसउ सुज्जाहासु खाड तु, (सूर्यहास खड्ग) कुकासु बाड़हि हाकाउ कुरहाडा लोहा, राणउ आरणु वम्मी राणी काठवत्तिम साण कीधिणी जे गेउरिहि मंत,
ते एप्पिणिहि तोडउ सुलूके मोडलं सूलु घाटी के मोडलं, घाटी तोडउं काठे के नोडउं कांठे सूल घाटी। कांठ मंत्र---'उ मुड स्फुट स्वाहा'२
प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में भी कुछ गद्य के उद्धरण संकलित किये गये हैं। अपभ्रंश गद्य के स्वरूप-ज्ञान के लिये उनका भी यहाँ उल्लेख अप्रासंगिक न होगा।
१. कामता प्रसाद जैन, हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० ३० २. वही, पृ० ५९। ३. प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रहान्तर्गत इन गद्य के उद्धरणों के उल्लेख का कारण पीछे
चौदहवें अध्याय के पृष्ठ ३६१ पर स्पष्ट किया जा चुका है।