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अपभ्रंश-साहित्य
सिउ मरुदेविहिं संचरीय कुंजरि चडीय नरिंद,
समोसरणि सुर वरि सहिय वंदिय पढम जिणंद ॥ (पृ० ८) सेना की यात्रा का सजीव वर्णन निम्नलिखित पद्यों में दिखाई देता है :--
वज्जीय समहरि संचरीय, सेनापति सामंत तु। मिलीय महाधर मंडलीय, गाढिम गुण गाजंत तु॥' गडयडंत गयवर गुडीय, जंगम जिम गिरि-शंग तु। सुंडा-दंड चिर चालवइ ए, वेलइं अंगिहिं अंग तु॥ गंजइ फिरि फिरि गिरि-सिहरि, भंजइ तरुअर-डालि तु। अंकुस-वसि आवइ नहीं य, करइ अपार जि आलि तु॥ हीसइं हसमिसि हणहणई ए, तर वर तार तोषार तु। खूदई खुरलइं खेडवीय, मन मानइं असुवार तु॥ पाखर पंखि कि पंखरू य, ऊडा ऊडिहिं जाइ तु।।
हुंफई तलपइं ससई, जडई जकारीय धाई तु ॥ (पृ० १०) भेरी बज रही हैं। सेनापति सामंत सब चले जा रहे हैं। जंगम पर्वतों के समान हाथी बढ़े जा रहे हैं। पर्वतों के शिखर गुञ्जायमान हो गये। वृक्षों की शाखायें टूटने लगीं । हाथी अंकुश के वश में नहीं रहे। ऊँचे-ऊँचे घोड़े हिनहिनाते हैं और वे जीन रूपी पंखों से पक्षी के समान वेग से उड़े जा रहे हैं । जोर जोर से हाँफते हैं--सांस लेते हैं।
इसी प्रकार युद्ध का सुन्दर वर्णन पृ० ४६ पर भी मिलता है ।
ग्रन्थ की भाषा में शब्दों का रूप यद्यपि ओकारान्त है किन्तु अनेक पाद टिप्पणियों में पाठ भेद से उकारान्त रूप भी मिलता है, जो अपभ्रंश का चिह्न है । भाषा में मुहावरों का प्रयोग भी मिलता है । जैसे :--
'जिम विण लवण रसोई अलुणी' पृ० २८
पार्श्वनाथ स्तुति कुमारपाल प्रतिबोधान्तर्गत दशार्ण भद्र कथा (पृ० ४७१-४७२) में आठ छप्पय छन्दों में पार्श्वनाथ की वन्दना की गई है। उसी की शरण में जाने का उपदेश दिया गया है । कवि ने यहाँ वताया है कि इन छन्दों का पाठ करते हुए मागध लोग राजा को जगाते थे। उदाहरणार्थ एक छप्पय देखिये -
गयण-मग्ग-संलग्ग-लोल-कल्लोल-परंपरु, निक्करुणुक्कड-नक्क-चक्क-चंकमण-दुहंकर, उच्छलंत-गुरु-पुच्छ-मच्छ-रिछोलि-निरंतरु, विलसमाण-जाला-जडाल-वडवानल-दुत्तर,
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१. प्रत्येक पंक्ति के अन्त में तु का प्रयोग आलाप के लिये किया गया है।