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अपभ्रंश-साहित्य चर्चरी शब्द ताल एवं नृत्य के साथ, विशेषतः उत्सवादि में, गाई जाने वाली रचना का बोधक है। इसका उल्लेख विक्रमोर्वशीय के चतुर्थ अंक के अनेक अपभ्रंश पद्यों में मिलता है। वहां अनेक पद्य चर्चरी पद्य कहे गये हैं। समरादित्य कथा, कुवलयमाला कथा आदि ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है। श्रीहर्ष ने अपनी रत्नावली नाटिका के प्रारम्भ में भी इसका उल्लेख किया है। संस्कृत-प्राकृत के अतिरिक्त अपभ्रंश-कवियों के काव्यों में भी इसका उल्लेख मिलता है। वीर कवि (वि० सं० १०७६) ने अपने जंबुसामिचरिउ में एक स्थान पर चच्चरि का निर्देश किया है। नयनंदी (वि० सं० ११००) के सुदंसणचरिउ में भी वसन्तोत्सव-वर्णन के प्रंसग में चच्चरि का उल्लेख है । श्रीचन्द्र (वि० सं० ११२३) के रत्नकरंड शास्त्र में भी एक स्थल पर इसका उल्लेख किया गया है। जायसी की पद्मावत में भी फागुन और होली के प्रसंग में चाचरी या चांचर का उल्लेख है। प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में सोलण कृत चर्चरी का व्याख्यान है । एक वेलाउली राग में गीयमान ३६ पद्यों की "चाचरि स्तुति" और दूसरी गुर्जरी राग में गीयमान १५ पद्यों की “गुरु स्तुति चाचरि"
१. अये यथायमभि हन्यमान मदु मृदंगानुगत गीत मधुरः पुरः पौराणां
समुच्चरित चर्चरी ध्वनि स्तथा तर्कयामि.....इत्यादि। रत्नावली, काले का संस्करण, बम्बई, १९२५ ई०, पृ० ९ । २. चच्चरि वंधि विरइउ सरसु, गाइज्जइ संतिउ तार जसु । नच्चिज्जइ जिण पय सेवहि, किउ रासउ अंवादेवहिं ।
जं० सा० च० १.४ ३. जिण हरेसु आढविय सुचच्चरि, कहिं तरुणि सवियारी चच्चरि।
सुदं० च० ७.५ ४. छंदणियारणाल आवलियहि, चच्चरि रासय रासहि ललिहिं । वत्थु अवत्थू जाइ विसेसहि, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहि ।
रत्न करण्ड शास्त्र, १२.३ ५ नवल वसंत, नवल सब बारी । सेंदुर बुक्का होइ धमारी॥
खिनहि चलहि, खिन चाँचरि होई । नाच कूद भूला सब कोई ॥ जायसी ग्रन्थावली-पद्मावत, का० ना० प्र० सभा काशी, सन् १९२४ संस्करण, वसंत खंड पृ० ८८ । होइ फाग भलि चांचरि जोरी। विरह जराइ दीन्ह जस होरी॥
वही, षड्ऋतु वर्णन, पृ० १६१ फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहि तन लाइ दीन्हि जस होरी ॥
वही, नागमती वियोग, खंड, पृ० १७० ६. प्राचीन गर्जर काव्य संग्रह, भाग १, गायकवाड़ ओरियंटल सिरीज, संख्या १३,
बड़ौदा, १९२० ई०, पृष्ठ ७१।