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चौदहवाँ अध्याय
अपभ्रंश स्फुट-साहित्य इससे पूर्व के अध्यायों में अपभ्रंश के महाकाव्यों, खंडकाव्यों मुक्तककाव्यों, रूपककाव्यों और कथाग्रन्थों का निर्देश किया गया है। इस अध्याय में अपभ्रंश के कुछ ऐसे ग्रन्थों का विवेचन किया जायगा जिनका पूर्वलिखित अध्यायों में--विभागों में समावेश नहीं हो सका । कुछ ग्रन्थ अप्रकाशित हैं और उनके स्वरूप का पूर्ण रूप से परिचय न होने के कारण उनका निर्देश इस अध्याय में कर दिया गया है। कुछ रासा ग्रन्थ प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में संगृहीत हैं। इन्हें प्राचीन गुजराती ही कहना और अपभ्रंश न मानना कहाँ तक संगत होगा, हम नहीं कह सकते । यद्यपि हमें गुजराती का ज्ञान नहीं
और इसलिये हम नहीं कह सकते कि ये ग्रन्थ प्राचीन गुजराती के नहीं किन्तु इतना निस्सन्देह कह सकते हैं कि ये अप्रभंश ग्रन्थ हैं और इनकी गणना अपभ्रंश ग्रन्यों में होनी चाहिये । प्रो० हीरालाल जैन के विचार में ये ग्रन्थ अपभ्रंश में ही है। प्रो. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये का भी, यही विचार मालम होता है ।२ उपरिनिर्दिष्ट रासा ग्रन्थों के अतिरिक्त चर्चरी, स्तोत्र, फाग, चतुष्पदिका आदि छोटी-छोटी कृतियों का भी इस अध्याय में अन्तर्भाव कर दिया गया है।
चर्चरी चच्चरी, चाचरि, चर्चरी आदि सब पर्यायवाची शब्द हैं। प्रस्तुत चर्चरी में कृतिकार जिनदत सूरी ने ४७ पद्यों में अपने गुरु जिनवल्लभ सूरि का गुणगान किया है और चैत्य विधियों का विधान किया है।
१. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ५० अंक ३-४, पृ० ११० । २. प्रो० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये के लेखक को मिले ७ फरवरी १९५२ के पत्र ___ का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है
“You will soon find that what we call Old-Hindi, OldRajasthani, Old-Gujrati, etc.--all these have often a common ground in Apabhramsa or what is often called post-Apabhramsa.'