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अपभ्रंश मुक्तक काव्य-२
३०७ जहि मण पवण ण संचरइ, रवि ससि णाह पवेस। तहि वढ़ ! चित्त विसाम करु, सरहें कहिअ उएस ॥ आइ ण अन्त ण मज्झ णउ, पउ भव गउ णिव्वाण ।
एहु सो परम महासुह, णउ पर णउ अप्पाण ॥ __ सरह ने काया को ही सर्वोत्तम तीर्थ मानकर उसी से परम सुख प्राप्ति की ओर निर्देश किया है :--
"एत्थु से सुरसरि जमुणा, एत्थु से गंगा साअरु । एत्थु पआग बणारसि, एत्यु से चन्द दिवाअरु ॥ खेत्तु पीठ उपपीठ, एत्थु भइँ भमइ परिठ्ठओ।
देहा सरिसउ तित्थ, मइँ सुह अण्ण ण दिट्ठओ॥ गुरु की महत्ता की ओर सरह निम्न लिखित पद्यों में निर्देश करते हैं :---
"गुरु उवएसे अमिअ रसु, धाव ण पीअउ जेहि। बहु - सस्थत्य - मरुत्थलहि, तिसिए मरिअउ तेहि ॥ चित्ताचित्ति वि परिहरहु, तिम अच्छहु जिम बालु। गुरु-वअणे दिढ भत्ति करु, होइ जइ सहज उलालु ॥ जीवन्तह जो उ जरइ, तो अजरामर होइ। गुरु-उवएसें विमल - मइ, सो पर धण्णा कोइ॥ विसअ विसुद्ध णउ रमह, केवल सुण्ण चरेइ ।
उड्डी वोहिअ-काउ जिमु, पलुटिअ तह वि पड़ेइ ॥ "उड्डी वोहिअ-काउ जिमु" इस उपमा का प्रयोग सूरदास ने अपने अनेक पदों में किया है - "थकित सिन्धु नौका के खग ज्यों फिरि फिरि फेरि वह गुन गावत।"
(म्रमर गीत ६०) 'भटकि फिर्यो बोहित के खग ज्यों पुनि फिरि हरि पै आयो।'
- (वही ११९) 'थकित सिन्धु नौका के खग ज्यों फिरि फिरि वोइ गण गावति।"
(वही २१३) सरह ने इस वाक्य का अर्थ विषय-भोग-परक किया है अर्थात् मन बार-बार विषयों की ओर आता है। किन्तु सूर ने इसका अर्थ भक्ति-परक किया है-“गोपियों का मन बार-बार कृष्ण की ओर ही लौटता है जैसे सिन्धु में नौका स्थित पक्षी इधर-उधर भटक भटक कर फिर उसी की शरण में आता है।" इस प्रकार इन सिद्धों की कविता का प्रभाव हिन्दी के संत कवियों पर ही नहीं पड़ा अपितु अन्य कवि भी उनकी कविता से प्रभावित हुए । अनेक उपमाओं, वाक्यांशों, विचारों और वाग्धाराओं को जिनका प्रयोग सिद्धों ने सहजमार्ग के लिये किया सूर आदि भक्त कवियों ने भक्ति-परक अर्थ में किया।