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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--२
३१५ डोम्बी एर संगे जो जोइ रत्तो। खणह न छाड़अ सहज उन्मत्तो॥'
(चर्यापद, १९.) कण्हपा और डोमिन के विवाह में पटह, ढोल आदि का शब्द उठ रहा है । मन पवन दोनों वाद्य यन्त्र हो गये। जय जय शब्द होने लगा। कण्हपा ने डोमिन को वधू रूप में स्वीकार कर लिया। दहेज में उसे अनुत्तर धाम मिला। उसने जन्म मरण के बंधन को नष्ट कर दिया। दिन रात उसी के संग से महासुख में लीन रहता है। इस प्रकार उसने पूर्ण निर्वाण अवस्था को प्राप्त कर लिया।
मन रूपी वृक्ष की पांच इन्द्रिय रूपी शाखायें हैं। वे अनन्त आशा रूपी पत्र फलों से लदी हुई हैं। यह वृक्ष शुभाशुभ रूपी जल से बढ़ता है। कण्हपा ने गुरु वचन रूपी कुठार से इसे काटने का, निम्न लिखित पद में उपदेश दिया है-- .
राग--मल्लारी
मण तरु पांच इन्दि तसु साहा। आसा बहल पात फल बाहा ॥ वर गुरु वअणे कुठारें च्छिजअ । काहन भणइ तरु पुण न उइजअ । बाढइ सो तरु सुभासुभ पाणी । च्छेवइ विदु जन गुरु परिमाणी ॥
__इत्यादि (चर्यापद, ४५.) सहज यान में गुरु की महत्ता का निर्देश तो है किन्तु वह महासुख क्योंकि वाणी द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता, अतएव गुरु भी उसका स्पष्ट रूप से वर्णन नहीं कर सकता, उसका आभास मात्र दे सकता है । कण्हपा कहते हैं--
राग--मालसी गवुड़ा जो मणगोअर आला जाला। आगम पोथी इष्टामाला॥ भण कइसे सहज बोल वा जाअ । काअ वाक् चिअ जसु ण समाअ॥ आले गुरु एसइ सोस। वाक् पथातीत कहिब कीस ॥
(चर्यापद, ४०.)
१. जअ जअ-जय जय । साद--शब्द । जाम-जन्म । आणुतु-अनत्तर ।