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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--३
३२३ अर्थात् ज्यों ज्यों वह श्यामा लोचनों की वक्रता--कटाक्ष पात सीखती है त्यों त्यों कामदेव अपने बाणों को कठोर पत्थर पर तेज करता है।
"पिय संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम्व । मइ विनि वि विन्नासिआ निद न एम्ब न तेम्व ॥
(हे० प्रा० व्या० ८.४.४१८) अर्थात् नायिका कहती है - न तो प्रिय संगम में निद्रा है और न प्रिय के परोक्ष होने पर । मेरी दोनों प्रकार की निद्रा विनष्ट हो गई, न इस प्रकार से नींद है न उस प्रकार से। निम्नलिखित पद्य में नारी के मुख सौन्दर्य की सुन्दर व्यंजना मिलती है
"गयणप्परि कि न चहि, कि नरि विक्खरहिं दिसिहि वसु, भुवणत्तय-संतावु हरहि, कि न किरवि सुहारसु । अंधयार कि न दहि, पडि उज्जोउ गहिउल्लओ, कि न धरिहिं देवि सिरहँ, सइँ हरि सोहिल्लओ। कि न तणउ होहि रमणायरहु, होहि किं न सिरि-भायरु। तुवि चंद निअवि मुह गोरिअहि, कुवि न करइ तुह आयरु ॥
(छंदोऽनशासन पृ० ३४) वियोग
"जे महु दिण्णा दिअहडा दइए पवसन्तेण । ताण गणन्तिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण ॥
(हे० प्रा० व्या० ८.४.३३३) अर्थात् प्रिय ने प्रवासार्थ जाते हुए जितने दिन बताये थे उन्हें गिनते गिनते नख से मेरी अंगुलियाँ जीर्ण हो गईं।
कौए के शब्द को सुनकर निराश हो कौए को उड़ाती हुई विरहिणी के नैराश्य भाव और प्रिय दर्शन से उत्पन्न आनन्दोल्लास का सुन्दर चित्रण निम्नलिखित पद्य में मिलता है
वायसु उड्डावन्तिअए पिउ दिट्ठ सहसत्ति। अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तडत्ति ॥
(हे० प्रा० व्या० ८.४.३५२) प्रवासी नायक गरजते मेघ को संबोधन करके कहता है
"जइ ससणेही तो मुअइ अह जीवइ निन्नेह । विहि वि पयारेहि गइअ धण किं गज्जहि खल मेह ॥
(वही ८.४.३६७) अर्थात् यदि वह मुझ से प्यार करती है तो मर गई होगी, यदि जीवित है तो निःस्नेह होगी। अरे खल मेघ ! दोनों ही तरह से वह सुन्दरी मैंने खो दी, व्यर्थ क्यों गरजते हो?
विरहिणी की आँखों से बरसते आँसुओं और गरम आहों की सुन्दरता से व्यंजना