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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--३
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सुभाषित - सद्भृत्य की अवहेलना करने वाले स्वामी पर कितना सुन्दर व्यंग्य निम्नलिखित पद्य में मिलता है—
" सायरु उपरि तणु धरइ तलि घल्लइ रयणाई । सामि सुभिच्चु वि परिहरइ सम्माणेइ खलाई ॥" ( हे० प्रा० व्या० ८.४. ३३४) पयडा करइ परस्स ।
" जो गुण गोवइ अप्पणा तसु हउं कलि जुगि दुल्लहहो बलि किज्जउं सुअणस्सु ॥"
( वही ८.४.३३८ )
खलों के दुष्ट वचनों के कान में पड़ने की अपेक्षा वन में वृक्षों के फल खाकर संतुष्ट रहना अच्छा है ।
अन्योक्ति
"दइव घडावइ वणि तरुहुं सो वरि सुक्खु पइट्ठ गवि
सउणिहं पक्क फलाई । कर्णाहि खल-वयणाई ||" ( वही ८. ४. ३४० )
"जीविउ कासु न वल्लहउं धणु पुणु कासु न इट्ठ । for a अवसर - निवडिआई तिण-सम गणइ विसिट्ठ ॥" ( वही ८.४.३५८ ) प्रेम के लिए दूरी का व्यवधान तुच्छ होता है । दूर स्थित सज्जनों का भी प्रेम असाधारण होता है-
"कहि ससहरु कहि मयरहरु कहि बरिहिणु काह मेहु । दूर - ठिआहं वि सज्जणहं होइ असड्ढलु नेहु ॥" ( वही ८.४.४२२ )
" जे निह न पर-दोस । गुणिह जि पर्याडअ तोस । ते जगि महाणुभावा । विरला सरल-सहावा ॥ पर-गुण- गहण स-दोस - पयासणु । महु महुरवखरहि अमिअ भासणु । उारिण पडिकिओ वेरिअणहं, इअ पद्धडी मणोहर सुअहँ ।”
(छन्दोऽनुशासन, पृ० ४३ )
"वच्छहे गृहइ फलई जणु कडु-पल्लव वज्जेइ । तो वि महद्द ु मु सुअणु जिवें ते उच्छंगि धरेइं ॥”
( हे० प्रा० व्या० ८.४.३३६) मनुष्य वृक्ष के कड़वे पत्तों को छोड़ कर फलों को ग्रहण कर लेता है, तथापि महाद्रुम सज्जन के समान उन्हें अपनी गोदी में धारण करता है ।
" एत्त मेह पिन्ति जलु एतहे बडवानल आवट्टइ । पेक्ख हरिम सायरहो एक्कवि कणिअ नाहि ओहट्टइ ॥" ( वही ८.४.४१९ )