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अपभ्रंश-साहित्य
सोमप्रभ संस्कृत और प्राकृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । कुमारपाल प्रतिबोध के अतिरिक्त इन्होंने सुमतिनाथ चरित, सूक्तिमुक्तावलि, शतार्थं काव्य इत्यादि ग्रन्थ भी लिखे । शतार्थ काव्य में निम्नलिखित एक वसन्ततिलका वृत्त की सौ प्रकार से व्याख्या की गई है।
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कल्याण सर सविता न हरेश मोह कान्तार वारण समान जयाद्यदेव । धर्मार्थं कामद महोदय वीर धीर सोम प्रभाव परमागम सिद्ध सूरे' ॥ इस काव्य से कवि के अगाध पाण्डित्य का आभास मिलता है । इसी ग्रन्थ के कारण सोमप्रभ का नाम शतार्थिक भी पड़ गया ।
कवि ने कुमारपाल प्रतिबोध की रचना श्रेष्ठि- मुख्य श्रावक अभयकुमार के पुत्रों की प्रीति के लिये की थी । अभयकुमार दीनों और अनाथों के पालन-पोषण के लिये कुमारपाल द्वारा खोले गये सत्रागार, दान भण्डार आदि का अधिष्ठाता था । सोमप्रभ का जन्म प्राग्वाट कुल के वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सर्वदेव था । सोमप्रभ ने कुमारावस्था में ही जिन दीक्षा ले ली थी । यह तर्क शास्त्र, काव्य शास्त्रादि के पंडित और धार्मिक उपदेश-प्रदान में चतुर थे। कवि ने कुमारपाल प्रतिबोध की रचना वि० सं० १२४१ में की थी। 3
जीवमनः करण संलाप कथा कुमारपाल प्रतिबोधान्तर्गत ( पृ० ४२२-४३७) एक धार्मिक कथा बद्ध रूपक काव्य है । इसमें इन्द्रियों को पात्र का रूप देकर उपस्थित किया गया है । देह नामक नगरी है । वह लावण्य लक्ष्मी का वासस्थान है । नगरी के चारों ओर आयु कर्म का प्रकार है। नगरी में सुख, दुःख, क्षुधा, तृषा, हर्ष, शोकादि अनेक प्रकार की नाड़ियाँ अनेक मार्ग हैं | उस नगरी में आत्मा नामक नरेन्द्र, बुद्धि नाम की महादेवी के साथ राज्य करता है । उनका प्रधान मन्त्री मन है । पंचेंद्रिय पांच प्रधान राजपुरुष हैं। एक बार राज्यसभा में विवाद उठ खड़ा हुआ -- मन ने जीवों के दुःखों का मूल कारण अज्ञान बताया । ने उसी ( मन ) को दुःखों का मूल कारण बताते हुए उसे धिक्कारा । विवाद बढ़ता गया । पांचों प्रधान राज पुरुषों की निरंकुशता और अहम्मन्यता की भी चर्चा हुई । मन ने इन्द्रियों को दोषी ठहराया। एक इन्द्रिय की निरंकुशता से ही व्यक्ति का विनाश हो जाता है, जिसकी पांचों इन्द्रियाँ निरंकुश हों उसका फिर कल्याण कैसे हो सकता हूँ ?
राजा
"इय विसय पलक्कओ, इहु एक्केक्कु, इंदिउ जगडइ जग सयलु ।
१. कुछ व्याख्यायें वहीं परिशिष्ट पृ० १०-१४ में दी गई हैं। २. वही, भूमिका पृ० १४-१५ ।
३. शशि जलधि सूर्य वर्षे शुचिमासे रवि दिने सिताष्टम्याम् । जिनधर्मः प्रतिबोध: क्लृप्तोऽयं गुर्ज्जरेन्द्रपुरे ॥
वही पृ० ४७८