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अपभ्रंश कथा-साहित्य
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से हरिषेण की तथा अन्य कवियों की 'धर्म परीक्षा' का आदि रूप कहा जा सकता है। दोनों में भेद इतना ही है कि धम्मपरिक्खा के रचयिता ने तीव्रता से पुराणों की निन्दा कर के जैन धर्म को थोपने का प्रयत्न किया हैं किन्तु धूर्तस्थान में पुराणों पर केवल हलका' सा व्यंग्य किया है, उसमें प्रचंडता और कटुता नहीं ।
ग्रन्थ का कथानक इस प्रकार है
कवि मंगलाचरण के पश्चात् अनेक प्राचीन कवियों का उल्लेख करतें हुए आत्म विनय प्रदर्शित करता है । तदनन्तर जंबू द्वीपान्तर्गत भरतक्षेत्र का काव्यमय भाषा में वर्णन किया गया है । उसी क्षेत्र के अन्तर्गत मध्य प्रदेश में वैताढ्य पर्वत का वर्णन करता हुआ कवि वैजयन्ती नगरी का सौन्दर्य प्रस्तुत करता है। वैजयन्ती नगरी के राजा की
रानी का नाम वाउवेयं ( वायुवेगा ) था । उनके मनवेग नामक एक अत्यन्त धार्मिक पुत्र था । उसका मित्र पवनवेग भी धर्मात्मा और ब्राह्मणानुमोदित पौराणिक धर्म में आस्था रखने वाला था । इसी सन्धि में कवि ने अवन्ती देश और ब्राह्मणों के देश पाटलिपुत्र का वर्णन किया है । मनवेग विद्वान् ब्राह्मणों की सभा में कुसुमपुर गया । पवनवेग भी उसके साथ था । तीसरी सन्धि में अंग देश के राजा शेखर का कथानक देकर कवि अनेक पौराणिक उपाख्यानों का वर्णन करता है। चौथी सन्धि में अवतारवाद पर व्यंग्य किया गया है । विष्णु दस जन्म लेते हैं और फिर भी कहा जाता है कि वह अजन्मा हैं । इस प्रकार परस्पर विरोधी बातें कैसे संभव हो सकती हैं ? स्थान-स्थान पर कवि ने 'तथा चोक्तं तैरेव' 'तद्यथा इत्यादि शब्दों द्वारा संस्कृत के अनेक पद्य भी उद्धृत किये हैं । इसी प्रसंग में शिव के जाह्नवी और पार्वती प्रेम एवं गोपी कृष्ण-लीला पर भी व्यंग्य किया है ।
तद्यथा
तद्यथा
का त्वं सुन्दरि जाह्नवी किमिह ते भर्ता हरो नन्वयं अंभस्त्वं किल वेत्सि मन्मथ रसं जानात्ययं ते पतिः ।
स्वामिन् सत्य मिर्च न हि प्रियतमे इत्येवं हर जाह्नवी गिरि सुता
सत्यं कुतः कामिनां संजल्पनं पातु वः ॥
४.१०
अंगुल्या कः कपाटं प्रहरति कुटिले माधवः किं वसंतो नो चक्री किं कुलालो न हि धरणिधरः किं द्विजिह्वः फणीन्द्रः । नाह घोराहि मद्द किमसि खगपति नो हरिः कि कपीशः इत्येवं गोपवेष्वा प्रहसितवदनः पातु वैश्चक्रपाणिः ॥
४. १२
पाँचवीं सन्धि में ब्राह्मण धर्म की अनेक अविश्वसनीय और असत्य बातों की ओर निर्देश कर मनवेग ब्राह्मणों को निरुत्तर करता है । इसी प्रसंग में वह कहता है कि राम
इस प्रकार व्यंग्य रूप से हरिभद्र ने ब्राह्मणों के पुराणादि को असत्य प्रतिपादित किया है।