Book Title: Apbhramsa Sahitya
Author(s): Harivansh Kochad
Publisher: Bhartiya Sahitya Mandir

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Page 375
________________ अपभ्रंश कथा-साहित्य कवि के पिता का नाम साहुल और माता का नाम जइता था। कवि जायस वंश में उत्पन्न हुआ था ।' कवि यमुना तट पर स्थित "रायवड्डिय" नाम की नगरी में रहता था। प्रो० हीरालाल के विचार में यह नगर आजकल आगरा फोर्ट से बांदी कुई जाने वाली रेलवे पर रायभा नामक स्टेशन के नाम से प्रसिद्ध है । संभवतः इस का प्राचीन नाम रायभद्र या रायभद्री होगा जो रायवड्डिय में परिवर्तित हो गया। __कवि ने आहवमल्ल के मन्त्री कण्ह (कृष्ण) के आश्रय में और उन्हीं की प्रेरणा से इस ग्रन्थ की रचना की। आहवमल्ल चौहान वंशी थे। इनके पूर्वजों की राजधानी यमुना तट पर चंदवाड नगरी थी। यह राजा म्लेच्छों के साथ वीरता से लड़े थे और इन्होंने हम्मीर देव की सहायता भी की थी तथा उसके मन के शल्य को नष्ट किया था ।३ इनके मन्त्री कृष्ण वणिक् वंश के थे। कवि ने प्रत्येक सन्धि की पुष्पिका में अपने आश्रयदाता के नाम का उल्लेख भी किया है। जिण दत्त चरिउ के रचयिता लवखण और यह लक्खण संभवतः एक ही व्यक्ति हैं। उनके पिता माता का नाम भी साहुल और जयता था, वह भी जायस कुल में उत्पन्न हुए थे और इस ग्रन्थ के कर्ता लक्खण के माता, पिता तथा कुल का नाम भी वही है । उन्होंने जिण दत्त चरिउ की रचना वि० सं० १२७५ में की थी और इन्होंने इस ग्रन्थ की रचना ३८ वर्ष बाद वि० सं० १३१३ में की। इतने वर्षों तक कोई काव्य रचना न करने से उन्हें भान हुआ कि मेरी कवित्व शक्ति क्षीण हो रही है। राजनैतिक उथलपुथल के कारण संभवतः उन के वासस्थान और आश्रयदाता का परिवर्तन हो गया हो। ग्रन्थ में कवि ने श्रावकों के पालन करने योग्य व्रतों (अणुनतों) और गहस्थियों के धर्मों का उल्लेख किया है। विषय प्रतिपादन के लिये अनेक कथाओं का आश्रय लिया है। नव मास रयतें पायडत्यु सम्मत्तउ कमे कमे एहु सत्थु । जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ६, किरण १, पृ० १७५ । १. साहुलहो घरिणि जइता-सुएण सुकइत्तण गुण विज्जाजुएण । जायस कुल गयण दिवायरेण अणसंजमीहिं विहियायरेण । इह अण-वय-रयण-पईउ कव्वु विरयउ ससत्ति परिहरिवि गव्वु । वही, पृ० १७४ । २. वही, पृ० १५९ । ३. दुप्पिच्छ मिच्छ रण रंग मल्ल, हम्मीर वीर मण नट्ठ सल्ल। वही, पृ० १६३ । ४. इय अणुवय रयण पईव सत्थे महा सावयाण सुपसण्ण परम तेवण्ण किरिय पयडण समत्थे सगुण सिरि साहुल सुव लक्खण विरइए भव्व सिरि कण्हाइच्च णामंकिए--इत्यादि । ५. एमेव कइत्तगगुण विसेसु परिगलइ णिच्च महु णिरवसेसु । वही, पृ० १६५ ।

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