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अपभ्रंश मुक्तक काव्य--३
३२९ निम्नलिखित पद्य, भोजदेव के गले में पड़े आभरण को देख कर, एक गोप कहता है :
"भोयएव गलि कण्ठलउ में भल्लउ पडिहाइ।
उरि लच्छिहि मुहि सरसतिहि सीम विहंची कांइ ॥" (पृ० ४५) अर्थात् मानो वह कंठाभरण हदय में लक्ष्मी और मुख में सरस्वती की सीमा का सूचक हो। ___ कहीं कहीं पद्यों में प्राचीन गुजराती और राजस्थानी का पुट भी मिलता है जैसा कि ऊपर उद्धृत पद्यों से स्पष्ट है । दोहा छन्द के अतिरिक्त सोरठा छन्द का भी प्रयोग मिलता है। यथा :
"को जाणइ तुह नाह चीतु तुहालउं चक्कवइ ।
लहु लंकह लेवाह मग्ग निहालइ करण उत्तु ॥" (पृ० ५८) राजशेखर सूरिकृत प्रबंध कोष--
प्रबन्ध कोश में भी पूर्व वणित विषयों पर कुछ मुवतक पद्य मिलते हैं। ग्रन्थ का समय वि० सं० १४०५ माना गया है इसमें प्राप्त पद्य इस काल के और इस काल से पूर्वकाल के भी हो सकते हैं। ग्रन्थान्तर्गत कुछ मुक्तक पद्य देखिए.-- चितित कुमारपाल को संबोधन करके कहा गया एक पद्य--
"कुमारपाल! मन चित करि चिंतिइं किंपि न होइ।
जिणि तुहु रज्जु सम्मप्पिउ चित करेसइ सोइ ॥" (पृ० ५१) निम्नलिखित पद्य में पूजा का विरोध मिलता है
"अणफुल्लिय फुल्ल म तोडहि मा रोवा मोडहिं। मण कुसुमेहिं अच्चि णिरंजणु हिंडहि काइ वर्णण वणु॥"
(प० १८) इसी प्रकार निम्नलिखित पद्यों में भी सुन्दर सुभाषित और अन्योक्ति शैली के दर्शन होते हैं :
"उवयारह उवयारडउ सव्व लोउ करेइ। अवगुणि कियइ जु गुणु करइ विरलउ जणणी जणेइ॥"
अर्थात् उकारी के प्रति उपकार तो सब लोग करते हैं । अवगुणी और अपकारी के प्रति भी उपकार करने वाला कोई विरला ही उत्पन्न होता है।
"वरि वियरा हि जणु पियइ घुट्ट ग्घुटु चुलएहि । __ सायरि अत्थि बहुत्तु जल छि खारा किं तेण ॥" (प० १११) एक छोटो सी बाउली अच्छी जहां चुल्लू से चूंट चूंट पानी पिया जा सकता है ।
१. मुनि जिन विजयजी द्वारा संपादित, सिंघी जैन ग्रंथमाला ग्रंथांक ६, शान्ति
निकेतन, बंगाल से प्रकाशित, वि० सं० १९९१,