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अपभ्रंश मुक्तक काव्य - ३
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कवि कल्पना करता है मानो उनके हृदय में स्थित अपरिमित प्रियतम का अनुराग बाहर फूट पड़ा हो । इसी प्रकार ग्रीष्म में सूर्य की तप्त किरणें हैं, पथिक तृष्णा से व्याकुल हैं, शरीर पर चंदन और स्नानार्थं धारा-यन्त्रों का प्रयोग किया जा रहा है, लोग मधुर द्राक्षा-जल पान कर रहे हैं इत्यादि ।
"जह तरुणिहिं घण घुसिगंगराओ निम्मविओ सीयसंगम विधाओ । मण मज्झि अमंतु पियाणुराओ नं निग्गओ बाहिरि निव्विवाओ ॥
इसके अतिरिक्त स्थल स्थल पर स्फुट पद्य भी मिलते हैं जिनमें सुभाषित, प्रेम प्रसंग, कथा प्रसंग, उपदेश आदि मिलते हैं । कुछ पद्यों में समस्या पूर्ति का ढंग भी दिखाई देता है । उदाहरण के लिये "कवणु पियावउं खीरु" की समस्यापूर्ति निम्नलिखित पद्य में देखिये
" रावणु जायउ जहि दियहि दहमुह चिताविय तइयह जणणि कवणु
एक्क-सरीरु । पियावउं खीर ॥ ( पृ० ३९० ) कुमारपाल प्रतिबोधान्तर्गत कुछ मुक्तक पद्यों के उदाहरण नीचे दिये जाते हैं। " पडिवज्जिवि दय देव गुरु देवि सुपत्तिहि दाणु । विरइवि दीण जणुद्धरण करि सफलउं अप्पाणु ॥”
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(कु० पा० प्र० १०७ )
" पुत्तु जु रंजइ जणय-भणु थी आराहइ कंतु । भिच्चु पसन्न करs पहु इहु भल्लिम पज्जंतु ॥” (वही, पृ० १०८ ) "चूडउ चुन्नी होइसइ मुद्धि कवोलि निहित्तु ।
सासानलिण झलक्कियउ वाह सलिल संसित्तु ॥ " ( वही पृ० १०८ ) हेमचन्द्र ने भी यह दोहा अपन प्राकृत व्याकरण (८.४.३९५ ) में उद्धृत किया है। इ अचम्भु दिट्ठ मई कंठि व लुल्लई काउ ।
rtofa बिरह - कलियहे उड्डाविय उवराउ ।। " ( वही पृ० ३९१ ) "यह रोयइ मणि हसइ जणु जाणइ सउ तत्तु । वेस विसिह तं करइ जं कट्ठह
करवत्तु ॥"
"जे परदार- परम्मुहा ते बच्चाह जे परिरंभहि पर रमणि ताहं फुसिज्जइ
( वही पृ० ८६ )
नरसीह ।
लीह ॥
( वही पृ० १२५ )
"अम्हे थोड़ा रिउ बहुध इउ कायर चिन्ति । मुद्धि बिहालहि गयणयन्तु कइ उज्जोउ करंति ॥" ( वही पृ० १५७ )