________________
३२२
अपभ्रंश-साहित्य
में रहे। इनकी मृत्यु ८४ वर्षों में वि० सं० १२२९ में हुई । इनका जन्म का नाम चंगदेव था, दीक्षा पर सोमचन्द्र और सूरि पद प्राप्त करने पर हेमचन्द्र नाम हुआ। यह संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के प्रकाण्ड पण्डित थे । इन्होंने व्याश्रय काव्य, प्राकृत व्याकरण, छन्दोऽनुशासन, देशी नाम माला नामक ग्रन्थ लिखे। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि एक बार किसी ब्राह्मण ने इन्हें व्यंग्य से कहा कि व्याकरण के लिये अन्त में तुम्हें ब्राह्मण पण्डित का ही सहारा लेना पड़ा । यह सुनकर इन्होंने अपने संस्कृत प्राकृत व्याकरण ग्रन्थ का निर्माण किया। इस व्याकरण ग्रन्थ का एक हाथी पर रख कर जलूस निकाला गया। स्वयं हेमचन्द्र भी उस हाथी पर बिठाये गये और अन्त में इसे राजकीय कोश में रख दिया गया । यह ग्रन्थ जयसिंह सिद्धराज को समर्पित किया गया था। अतएव इसका नाम सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासन या सिद्ध हैम रखा गया। इन्होंने भारत के अन्य देशों में यद्यपि भ्रमण न किया था तथापि इनका प्रभाव दूर दूर तक था । कुमारपाल भी इनसे अत्यधिक प्रभावित था और इन्होंने उस राजा से जैनों के लिये अनेक अधिकार प्राप्त किये थे । जैनों के अनेक पवित्र दिनों पर पशु हिंसा भी बन्द करवा दी थी। यह कलि काल सर्वज्ञ माने गये हैं।
हेमचन्द्र ने शब्दानुशासान के प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत, आठवें अध्याय के प्रथम तीन पादों में प्राकृत और चतुर्थं पाद में ३२९ सूत्र से अपभ्रंश के नियमों का उल्लेख किया है। इन नियमों के उल्लेख के साथ साथ उदाहरण स्वरूप अनेक अपभ्रंश पद्य भी दिये हैं। इसी प्रकार कुछ अपभ्रंश पद्य छन्दोऽनुशासन में भी मिलते हैं। इन पद्यों के विषय संयोग, वियोग, वीर, उत्साह, हास्य, अन्योक्ति, नीति, प्राचीन कथानक निर्देश, सुभाषित आदि हैं। इन में सुन्दर साहित्यिक सरसता के साथ साथ लौकिक जीवन और ग्राम्य जीवन के भी दर्शन होते हैं। ___ इसी प्रकार हेमचन्द्र के कुमारपाल चरित या याश्रय काव्य के २८ सर्गों में से अन्तिम आठ सर्ग प्राकृत और अपभ्रंश में हैं । अन्तिम सर्ग में १४ से ८२ तक के पद्य अपभ्रंश में मिलते हैं। इन पद्यों में धार्मिक उपदेश भावना प्रधान है। हेमचन्द्र के अन्य मुक्तक पद्यों के समान स्वच्छन्द वातावरण इन में नहीं मिलता। हेमचन्द्र के भिन्न भिन्न ग्रन्थों में प्राप्त मुक्तक पद्यों के उदाहरण नीचे दिये जाते हैं : संयोग शृंगार--"बिट्टीए मइ भणिय तुहं मा करु वंकी दिछि । पुत्ति सकण्णी भल्लि जिव मारइ हिअइ पइछि ॥"
(हेम० प्राकृत व्याकरण, ८.४.३३०) "जिव जिवे वंकिम लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ। . . तिवें तिवं वम्महु निअय-सरु खर-पत्थरि तिक्खइ ॥"
(हे० प्रा० व्या० ८.४.३४४)
१. सूत्रों का निर्देश डा० परशु राम वैद्य द्वारा संपादित हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण,
सन् १९२८ के अनुसार है।